मनोहर पर्रिकर को इस उम्र में पता चली अपनी जाति….

नई दिल्ली। गोवा के दिवंगत मुख्य मंत्री मनोहर पर्रिकर को तब तक अपनी कास्ट के बारे में जरा भी अंदाज नहीं था, जब तक वो 17 साल की उम्र में आईआईटी मुंबई पढ़ने नहीं गए. वहां जब एक डॉक्टर ने उनसे उनकी कास्ट के बारे में कुछ पूछा तो वो जवाब नहीं दे पाए थे, तब डॉक्टर ने कहा था, तुम इस बारे में अपनी मां से पूछना.
सोनिया गोलानी की किताब “माई लाइफ माई रूल्स” में मनोहर पर्रिकर पर विस्तार से एक पूरा अध्याय लिखा है. ये किताब 18 उन शख्सियतों की बात करती है, जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत परंपरागत तरीके से की लेकिन फिर करियर को एकदम बदल डाला. वो अपने जीवन में ऐसे करियर की ओर बढ़े, जो मुश्किल और चुनौती भरा था.
इसी किताब में सोनिया ने मनोहर पर्रिकर से खास मुलाकात करने के बाद उन्हीं के शब्दों में जो लिखा, वो यूं है, “वास्तव में मुझे तब तक अपनी जाति के बारे में नहीं मालूम था, जब तक कि मैं आईआईटी पढ़ने नहीं गया. आईआईटी में मेडिकल डॉक्टर एक सारस्वत थे. जो मेंगलूर से थे. जब उन्होंने मेरा सरनेम देखा तो पूछा- क्या तुम जीएसबी हो. मैने पलटकर उनसे पूछ लिया, ये जीएसबी क्या होता है. तब उन्होंने कहा कि इसका जवाब अपनी मां से पूछना. तब मैं 17 साल का था. इसके बाद ही मुझको मालूम हुआ कि जीएसबी का मतलब गौड़ सारस्वत ब्राह्मण होता है और मेरी जाति वही है.”

वो खून नहीं देख सकते थे इसलिए डॉक्टर नहीं बने
किताब आगे कहती है कि मनोहर के पिता उन्हें डॉक्टर या चार्टर्ड अकाउंटेंट बनाना चाहते थे. उनके पिता कभी खुद डॉक्टर बनना चाहते थे लेकिन पारिवारिक व्यावसाय को संभालने की जिम्मेदारी जल्दी कंधों पर आने से ऐसा नहीं कर सके थे. अब वो चाहते थे कि उनका बेटा डॉक्टर या सीए में एक पेशा जरूर अपनाए.

मनोहर अकाउंटेंसी और मैथ में अच्छे तो थे लेकिन सीए नहीं बनना चाहते थे. तब पिता ने सुझाव दिया कि वो डॉक्टर बनें लेकिन बेटे को खून देखकर ही डर लगता था, लिहाजा वो इसके लिए भी तैयार नहीं थे. कुछ और विकल्पों पर विचार करने के बाद मनोहर ने घोषणा की कि वो इंजीनियरिंग करेंगे.
पिता निराश हुए क्योंकि वो इंजीनियरिंग को लेकर बहुत बेहतर राय नहीं रखते थे. काफी अनिच्छा से बेटे के इंजीनियरिंग पढने पर मुहर लगाई.

आईआईटी में जाने का भी कोई मूड नहीं था
मनोहर ने इंजीनिरिंग के कई कॉलेजों के फॉर्म भरे लेकिन आईआईटी – जेईई एग्जाम का फॉर्म नहीं भरा, उन्हें लगता था कि आईआईटी और अन्य अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेजों में कोई अंतर नहीं है. उनका एक नजदीकी दोस्त आईआईटी एग्जाम फॉर्म अपने लिए लेकर आया था लेकिन वहां की ज्यादा फीस के चलते उसने वो इरादा छोड़ दिया. ये फॉर्म मनोहर को दे दिया. बाद में यही फॉर्म मनोहर के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ. उस साल गोवा से जिन 18 बच्चों ने आईआईटी की प्रवेश परीक्षा पास की थी, उसमें मनोहर भी एक थे.
हालांकि ये एग्जाम पास करने के बाद भी मनोहर तय नहीं कर पा रहे थे कि उन्हें क्या करना चाहिए. उनकी पहली प्राथमिकता वीरमाता जीजाबाई टेक्नॉलॉजी इंस्टीट्यूट मुंबई था.
उन्हें ये तो मालूम था कि आईआईटी बांबे अच्छा इंस्टीट्यूट है लेकिन इससे अनजान थे कि ये प्रीमियर इंस्टीट्यूट है. इसकी स्थापना 1958 में हुई थी. ये देश का दूसरा आईआईटी था. उस समय के लिहाज से ये नया इंस्टीट्यूट था. तब तक इसकी उतनी ख्याति भी नहीं थी.
किताब में कहा गया कि जब 18 जून को वो इंटरव्यू देने आईआईटी बांबे कैंपस गए तो वहां के माहौल से प्रभावित हुए. उन्होंने आईआईटी में पढने का फैसला किया. मनोहर का कहना है कि उन्होंने आमतौर पर जिंदगी में जो भी फैसले लिये वो विवेक और जानकारियों के आधार पर लिए, केवल कुछ फैसले भावनात्मक तौर पर लिये, आईआईटी में पढ़ने का फैसला ऐसा ही इमोशनल निर्णय था. लेकिन आईआईटी के अलग अलग बैकग्राउंड से आए छात्रों और प्रोफेसर्स के कारण उन्होंने वहां ये सीखा कि कैसे तरह तरह के लोगों और कल्चर के बीच एडजस्ट किया जाता है.
आमतौर पर क्लासेज बंक करते थे
आईआईटी में मनोहर ज्यादातर क्लासेज बंक करते थे यानि क्लासेज में नहीं जाते थे बल्कि खुद ही पढाई करने पर विश्वास करते थे. ये बेशक बहुत असामान्य एप्रोच कहा जा सकता है लेकिन इसने उनके लिए अच्छा काम किया. इसने उनके इस विश्वास को मजबूत किया कि सीखकर पढने की बजाए खुद पढ़ना ज्यादा अच्छा होता है, बशर्ते कोई ऐसा कर पाए.
वो रोज चार से पांच घंटे लाइब्रेरी में बिताते थे. वहां वो सभी तरह की रिफरेंस बुक्स के साथ बैठते थे, इसलिए उनकी पढाई पर कोई असर नहीं पड़ता था.
मनोहर पर्रिकर देर रात अपने ऑफिस में बैठकर सारी फाइलें निपटाते थे
किताब की लेखिका सोनिया से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया, “मैं आईआईटी से निकलने के तीन चार दशक बाद एक शख्स से मिला, जिसने पूछा, क्या आप मुझे पहचान रहे हैं. मैने कहा-नहीं. तब उसने बताया, मैं आईआईटी में आपका लाइब्रेरियन था. वो रिटायर हो चुके थे लेकिन मुझको याद रखे हुए थे.”
जानिए उनके परिवार में कौन-कौन हैं
बाद के जीवन में भी मनोहर पर्रिकर की ये आदत हमेशा बनी रही. वो देर रात तक आफिस में बैठकर खुद सारी फाइलें पढने के बाद किसी नतीजे पर पहुंचते थे. वो समस्याएं खुद के स्तर पर निकालने में ज्यादा यकीन करने वाले शख्स थे. उनका कहना था, मैं बगैर किसी की मदद के अपनी सारी समस्याएं खुद सॉल्व कर सकता हूं.

उनके लिए आईआईटी में टूटा था ये नियम
वो आईआईटी में अकेले स्टूडेंट थे, जिन्हें पासआउट ईयर में स्टूडेंट अफेयर्स का जनरल सेक्रेटरी चुना गया, तब स्टूडेंट्स बॉडी की जनरल काउंसिल ने खुद ये नियम बदला था. ऐसे में उनसे अपेक्षा की गई कि वो आईआईटी पास करने के बाद मास्टर्स भी यहीं से आकर करेंगे. मनोहर ने भरोसा दिया कि वो ऐसा ही करेंगे. हालांकि उनके पास आईआईएम कोलकाता एनआईटीआईई मुंबई में जाने के विकल्प थे लेकिन उन्होंने आईआईटी मुंबई चुना.

जब किताब की लेखिका ने उनसे पूछा कि आखिर वो कौन सी बात थी, जिसने उन्हें छात्रों के बीच इस कदर पॉपुलर बना दिया कि उन्होंने अपना नियम तोड़ दिया.
उनका संक्षिप्त जवाब था-“सस्ते दामों में अच्छा खाना.”

इसलिए पहली नौकरी छोड़ दी
उनकी पहली नौकरी मुकंद लिमिटेड में थी. चार महीने बाद ही उन्हें लगा कि वो किसी ऐसे के साथ काम नहीं कर सकते, जो उनका बॉस बनने की कोशिश करे. जब मुकंद में ऐसी चीज के नहीं होने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया, जिसके लिए वो जवाबदेह थे ही नहीं, जो उन्होंने किया ही नहीं था, उस पर उन्होंने तीखी प्रतिक्रिया दी और फिर नौकरी छोड़ दी. इसके बाद उन्होंने गोवा के पास अपनी हाइड्रॉलिक उपकरण बनाने वाली फैक्ट्री शुरू की.
आरएसएस से कब जुड़े थे
फैक्ट्री लगाने के साथ मनोहर की दिलचस्पी राजनीति में बनी रही. वो स्कूल के दिनों से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े हुए थे. जहां वो कई वेलफेयर प्रोग्राम्स में वालंटियर के रूप में काम करते थे. वो फिर से संघ से जुड़ गए.
उस समय आरएसएस गोवा में संक्रमण काल में थी. 1980 में जब भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई तो मनोहर उसके सदस्य हो गए.प्रमोद महाजन उनकी लीडरशिप स्किल और संगठन क्षमता से प्रभावित हुए और उन्हें ऐसे मुख्य लोगों में छांटा, जिन्हें गोवा बीजेपी के लिए भविष्य में महत्वपूर्ण भूमिका दी जा सकती थी. और वो गलत नहीं थे.

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