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इस ज्योतिर्लिंग के बारे में एक मान्यता प्रचलित है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शिव का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन भगवान पांडवों से रुष्ट थे।
भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, वे उन्हें नहीं मिले। पांडव शिव को खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वह अंर्तध्यान होकर केदार में जा बसे। दूसरी ओर पांडव भी वे उनके पीछे-पीछे केदार पहुंच गए।
वहां शिव ने बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया। भीम ने विशाल रूप धारण कर दो पहाड़ों पर पैर फैला दिए। सब गाय-बैल तो वहां निकल गए, लेकिन बैल बने भगवान शिव पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए।
भीम उस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में समाने लगा। भीम ने बैल की पीठ का भाग पकड़ लिया। इस पर भगवान शिव पांडवों की भक्ति देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। तब से भगवान शिव बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं।
मंदिर में मुख्य भाग में मंडप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नंदी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मंदिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है। कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी।
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