हुरियारिनों का जो लठ है, वो पहले पेड़ से डंडे तोड़कर तैयार किया जाता था, लेकिन अब बाजार में सजे-धजे लट्ठ बिकते हैं। हुरियारिन इन्हें खरीदती हैं। इसी तरह हुरियारों की ढाल भी बदल गई है।
ब्रज की होली में समय के साथ बहुत कुछ बदला। बरसाना-नंदगांव की लठामार होली भी इससे अछूती नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण के समय से शुरू हुई कनक पिचकारी और फूलों से सजी छड़ियों की होली ने आज मोटे बांस के लट्ठ और गद्देदार व लोहे की आकर्षक ढालों ने ले लिया है।
बरसाना के बुजुर्ग बताते हैं कि 5 दशक पूर्व तक हुरियारिन पेड़ों से डालियां तोड़कर लाठियां तैयार करती थीं। उन्हें धूप में सुखाकर उन पर चित्रकारी करती थीं। अब बांस की लाठियों का प्रयोग हुरियारिनों द्वारा किया जा रहा है। वहीं, हुरियारों चमड़े और कुप्पा से बनी ढालों को वसंत पंचमी से ही तेल पिलाना शुरू कर देते थे, ताकि ढाल की अकड़न खत्म हो जाए।
अगर, ढाल में कोई कमी होती थी तो मोची से उसे ठीक कराया जाता था। ढाल को सजाया जाता था। आज के दौर में चमड़े से बनी ढालों का चलन बहुत कम हो गया। रबर की ढालों में अब हवा भरकर उनमें एलईडी लगाकर ढालों को तैयार किया जा रहा है। बाजार में कई प्रकार से सजी धजी ढालें आ चुकी हैं।
70 वर्षीय हुरियारिन चंद्रकांता कहती हैं, आज से 50 साल पहले जब हमने होली खेली थी। उस समय भी लट्ठ से खेलते थे। हमारी सासू मां ने हमें बताया कि अब तो लट्ठ से होली खेलते जब हम व्यहा के आए थे तो पेड़ के डंडे तोड़कर लाते और महीनों उनको संवारते, रंगोली बनाते तब होली खेलेते। हमारे से पहली पीढ़ी ने डंडे से होली खेली है। ऐसा हमारे बुजुर्ग बताते थे।
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