मीलों के फासले मिट गए मोहन के प्यार में, सिमट आया है सारा भारत इस रस संसार में। अकिंचन ने मन दिया और धनवान ने धन, भाव सबका समाया है वृंदावन धाम में। ये पक्तियां उन रसिकों को समर्पित हैं जिनके कारण वृंदा विपिन मंदिरों का नगर बना। वृंदावन का वैभव बढ़ाने वाले दूर देश के ये भक्त इतिहास के पन्नों में सदा के लिए अमर हो गए। समय के साथ जब पीढ़ियां बदली तो कुंज बहुत लद गये, उत्सवों का जमान गुजर गया। देवालयों के रूप में खडी उन रसिकों की विरासत का आज यही हाल है चलो, उनकी खैर खबर कर आते हैं।
राधावल्लभ घेरा में कलकत्ता वाला हवेलीनुमा मंदिर है। बादामी पाषाण से निर्मित इस हवेली की कारीगरी कायल कर देती है। दीवारों और खंभों पर बेलबूटे उकेरे गए हैं। जगमोहन में भी शिल्प की चमक है। राधा जीवन वल्लभ की सुंदर छटा को निहार हृदय आनंद निधि पाता है। गर्भगृह के सामने हनुमान जी की मूर्ति है। सेवायत को मंदिर के इतिहास की जानकारी नहीं है। शिलापट में मंदिर की स्थापना का समय सन् 1809 अंकित है। मंदिर की संस्थापिका कलकत्ता निवासी अमृत बीबी थीं। पहले यहां एक अन्नक्षेत्र चलता था। प्रतिवर्ष पूरे कार्तिक मास में रात्रि को रास होता था जो मंदिर का बहुत बड़ा आकर्षण था।
अष्टयाम सेवा भी न रही
राधा रमण मंदिर मार्ग में स्थित कानपुर वाले मंदिर की कथा भी कुछ एसी ही है। करीब ढाई सौ साल पुराने इस मंदिर का जीर्णोद्धार सन् 2010 में हुआ था। दीवारें दमक गई पर परंपराओं क कलश रीत गया। मंदिर में सेवा करते हुए राधावल्लभ शर्मा के परिवार की दो पीढ़ियां गुजर गई। तीसरी पीढ़ी के सेवायत राधावल्लभ का कहना है कि “राम दरबार व शिव परिंवार की मूर्तियों की प्रतिष्ठा कुछ समय पहले ही हुई है। मध्य में राधा कृष्ण की मूर्ति के निचले सिंहासन पर ठाकुर राधा ब्रज रमण लाल का प्राचीन विग्रह है। उनके नीचे विराजमान जुगल जोड़ी कानपुर से आई है। पहले जैसा कुछ नहीं रहा। मालिकों ने ट्रस्ट बना कर मंदिर की देखरेख उनको सौंप दी। पहले मंदिर में रास होता था। सारे उत्सव धूमधाम से मनाए जाते थे। अब उत्सवों की क्या कहें, अष्टम सेवा भी नहीं रही। निंबार्क संप्रदाय से पूजा होती है। वर्तमान में चार आरती-दो भोग की सेवा है। कानपुर के सेठ लाला किशन चंद्र रामप्यारी खोंसला ने 250 बरस पहले इस मंदिर का निर्माण कराया था।
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