कालिंदी कात्यायनी और चीर कदंब… सब मिलकर द्वापर के दृश्य का चित्रण करते हैं। सियारा के तट पर चीर हरण का प्रसंग तैर रहा है। यहां आकर उस प्रसंग की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। यहीं कात्यायनी को पूजकर गोपियों ने कान्हा को वर रूप में पाया था। यूं तो वृंदावन में भी चीर कदंब है पर चीर हरण लीला का वास्तविक स्थान सियारा का चीर घाट है। यात्रा घाट पर फैली नीरवता को तोड़ती है। चीर हरण लीला को जीने चलेंगे न। छटीकरा-आटस मार्ग पर 15 किमी दूर सारा गांव है। गिट्टियां और गडूढ़ों से भरे पथ पर यह दूरी तय करने में दोगुना समय लग जाता है। गांव को पार कर चीर घाट पहुंचते हैं। हजारों वर्षों के अंतराल में यमुना मैया घाट से दूर हो गई हैं। चीर कदंब पर मनौतियों के रंग बिरंगे चीर बंधे हैं। यहां गोपियों के चीर चुराते चीर बिहारी की सुंदर झांकी है। गोप कन्याएं कान्हा से अपने चीर लौटाने की मनुहार कर रही हैं। ब्रज विकास ट्रस्ट के संस्थापक श्रीजी बाबा ने सन् 2003 में इस मंदिर का निर्माण कराया है। चीर कदंब से थोड़ी दूर प्राचीन वट है जिसके नीचे भोले बाबा स्थापित हैं। जनश्रुति के अनुसार यह स्वयं प्रकट शिवलिंग है। गोपियों ने महादेव पर जल चढ़ाया था।
इसके सामने यमुना किनारे छोटे से मंदिर में मां कात्यायनी की बालू की मूर्ति विराजमान है। इस प्राचीन स्थल पर वैभव नहीं बरसता। अध बने मंदिर की दशा सब कुछ कह जाती है। इससे पहले मां एक कटिया में स्थापित थीं। कृष्ण को वर रूप में पाने के लिए गोपियों ने इसी स्थान पर बालू से कात्यायनी मां की मूर्ति बनाकर एक मास तक पूजा अर्चना की थी। इस कठिन साधना के बाद श्रीकृष्ण ने ब्रजांगनाओं का अभीष्ट पूरा किया। उन्होंने कहा, आप सब अपने घरों को लौट जाओ। आने वाली शरद ऋतु की रात्रि को आप सब मेरे साथ विहार करोगी। शरद पूर्णिमा को भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ महारास किया। मंदिर में उसी मूर्ति के दर्शन हैं। उस पर चोला चढ़ा हुआ है। दू-दराज से भक्त मां के दर्शन को आते हैं।
हेमंत ऋतु के प्रथम मास मार्गशीर्ष में ब्रज की कुमारियां कात्यायनी देवी की पूजा और व्रत करने लगी। वे कुमारी कन्याएं पूर्व दिशा का क्षितिज लाल होते ही यमुना जल में स्नान करतीं और तट पर देवी की बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगंधित चंदन, फलों के हार, भांति-भांति के नैवेध् आदि से उनको पूजती थीं। वे प्रार्थना करती, हे कात्यायनी। आप नंद नंदन श्रीकृष्ण को हमारा पति बना दीजिए। एक दिन सब कुमारियां प्रतिदिन की भांति यमुना तट पर भगवान कृष्ण के गुणों का गान करते हुए आनंद क्रीड़ा करने लगी। गोपियों की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए कृष्ण अपने सखाओं के साथ कालिंदी के कूल पर आ गए। उन्होंने गोपियों के वस्त्र उठा लिए और बड़ी फुर्ती से कदंब पर चढ़ गए| कृष्ण ने कहा, देखो, जब तुम स्वयं को मेरी दासी स्वीकारती हो तो अपने अपने वस्त्र ले जाओ । इस प्रसंग के माध्यम से भगवान ने गोपियों को जल में निर्वस्त्र स्नान न करने का संदेश दिया। उन्होंने कहा कि गोपियों, तुमने जो व्रत लिया था, उसे अच्छी तरह निभार है। लेकिन वस्त्रहीन होकर स्नान करने से जल के अधिष्ठात्र देवता वरूण व यमुना जी का अपराध किया है।
आपु कदम चढ़ि देखत श्याम
बसन आभूषण सब हरि लीन्हे, बिना बसन जल भीतर बाम
मूंदत नयन ध्यान धरि हरि कौ, अंतर्यामी लीन्हौं जान
बारबार सबिता सौं मांगें, हम पावैं पति सुंदर श्याम
जलते निकसि आइ तट देख्यौ, भूसन चीर तहां कछु नाहिं
इत उत हेरि चकृत भई सुंदरि, सकुचि गई फिरि जलही माहिं
नाभिप्रयंत नीर में ठाड़ी, थरथर अगर पति सुकुमारि
को लै गयौ बसन आभूसन, ‘सूरश्याम’ उर प्रीति बिचारि
चीर क्यों चुराये म नैकंकु ना लजाये कान्ह। हमतौ तिहारी सब रूप रंग रासी हैं।।
ठाड़ी है उघारी ब्रज अवला बिचारी कांप रही हैं मुरारी मन अति ही उदासी हैं।।
वार ना लगाऔ वृथा रार न बढ़ाऔ प्यारे। खायौ ना काल हम ग्यारस की उपासी है।।
‘प्रीतम’ जू देउ चीर नैन सौं बहत नीर। कहैं आज है अधीर तेरी हम दासी हैं।।
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