माघ वदी आठ को विराजे प्रियावल्लभ जू, नवल निकुंज मांझ अद्भुत सुख भये हैं।
संवत 1870 की साल लाल, बाल छवि देख जनम जनम दुख गए है।
नौबत निसान बाजै भजन समाज भले, राजी किये सबही सनेहिन कू दये हैं।
उभय वंश जिन पुरखा कृतारथ करे हैं, महारानी बखत कुंवर जग जस छए हैं।
महल की उपासना कौ दुर्लभ नाम मिल्यौ, प्रियावल्लभ जू की प्रिया सखी प्यारी है… हित परमानंद जी की ये पंक्तियां बखत कुंवर की भक्ति की थाह तक ले जाती है। दतिया की ये रानी मोहन की प्रिया सखी हो गईं। कुंज बनवाकर प्रियावल्लभ की प्रतिष्ठा की। छीपी गली की दतिया कुंज बखत कुंवर का जश गा रही है। गर्भगृह के मध्य में प्रिया के प्रियवल्लभ की प्यारी छवि सोह रही है।
वृंदावन में दतिया कुंज की आठ शाखाएं हैं। छिपी गली में स्थापित छोटी कुंज राधावल्लभ संप्रदाय से जुड़े हित परमानंददास की भजन स्थली है। मंदिर में उनके सेव्य विजय राधावल्लभ लाल विराजे हैं। त्रिभंगी मुद्रा में खड़े ठाकुर और राधिका के अधरों पर खेलती मुस्कान को नजरें एकटक निहारती हैं। कभी यह स्थान सघन लता-पताओं से आवृत्त था। वनश्री नहीं रही पर अलौकिकता अब भी वास किए है।
कुंज का शिल्प सौंदर्य भी ध्यान खींचता है। मंदिर के सेवायत आचार्य विष्णु मोहन नागार्च से कुंज का इतिहास प्राप्त हुआ। दतिया, बुंदेलखंड के महाराज शत्रुजीत की रानी बखत कुंवर हित परमानंददास जी की शिष्या थीं। उन्होंने सन् 1808 में यह जमीन खरीदी थी। माघ वदी अष्टम सन् 1813 को प्रियावल्लभ जी की स्थापना हुई। यहां राधावल्लभ संप्रदाय अनुसार सेवा पूजा होती है। पांच भोग, सात आरती की व्यवस्था है। यह कुंज विशाल क्षेत्र में फैली है। इसका मुख्य द्वार छीपी गली,दक्षिण द्वार पुराने बाजाजा में है। भू माफिया इसके अतिक्रमण के लिये सक्रिय हैं। इसे बचाने के लिए सेवायत लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं। कुंज में परमानंद ग्रंथ भंडार भी है जिसमें हित परमानंद जी के ग्रंथों का संग्रह है। उनकी हस्तलिखित वाणी भी संरक्षित है। इस कुंज का राधाष्मी महोत्सव प्रसिद्ध है। सात दिन के उत्सव में समाज गायन रासलीला आदि कार्यक्रम होते हैं। उसके बाद ब्रज यात्रा प्रारंभ होती है।
यहां आज भी लीला करते हैं ठाकुर
सेवायत आचार्य विष्णु मोहन नागार्च कहते हैं कि कुंज पर ठाकुर जी की बड़ी कृपा है । अपनी लीलाएं दिखाते रहते हैं। एक बार हित परमानंद जी विजय राधावल्लभ को पाग धारण करा रहे थे | वह बार-बार पाग नीचे गिरा दिया करते थे। हित जी ने कहा, अब खुद ही धारण कर लो या श्रीजी से बंधवा लो। कुछ देर बाद देखा तो श्यामा के हाथ में पाग का छोर था । ठाकुर जी की पाग बंधी हुई थी। सन् 1978 की बात है। कुछ लोग कुज को घेर रहे थे। तभी एक पीतांबरधारी बालक आया और घरवालों से बोला, डरते क्यों हो । कुछ देर में मुसीबत टल गई।
बड़ी दतिया कुंज
समृद्धि अब झरोखों से झांकती है। दुकानों के झुरमुट में प्रवेश द्वार की भव्यता खो गई है। अहाता भी आहत खड़ा है। नीरवता और नीसरता से घिरे सागर परिवेश मे हीरा मोहन बैठे हैं। दतिया की रानी हीरा कुंवरि के हीरा मोहन से क्या छिपा है। उनकी नजरों में कुंज का हारे सा चमकता इतिहास नजर आता है। वे कहती हैं कि पहले हमारी पोशाक ही नहीं, पूरी कुंज हा सजा धजी रहती था। अब तो कुंज को श्रृंगार किए बरसों हो गए। यह कहानी वनखंडी मार्ग स्थित बड़ी दतिया कुंज की है। दतिया नरेश पारीक्षत की रानी हीरा कुंवरि द्वारा बनवाई गई यह कंज कभी अपने ऐश्वर्य के लिए जानी जाती थी पर अब हालात बदल गए हैं। बरसों पहले कलात्मक वैभव का संकुचन हो गया। अब हर तरफ मौन पसरा है। गोपाल कवि कृत वृंदावनधामनुरागावली में बड़ी कुज का विवरण मिलता है। हीरा कुंवरि ने कुंज बनवाकर हीरा मोहन की प्राण प्रतिष्ठा की थी। वर्तमान में वनश्री भी नहीं रही। दतिया नरेश पारीक्षत संवत 1879 में 200-300 लोगों के साथ ब्रज यात्रा पर आए थे। उस समय वे इसी कुंज में ठहरे थे । यह कुंज इससे पहले ही निर्मित हुई होगी।
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