दुनिया को द्वापर का ईश देने वाली ब्रज वसुंधरा अपनी गोद में युगों की गाथा को पोषित करती आई है। इस पावन रज में ऋषि मुनियों का तप कंचन बन चमका है लेकिन ब्रज की इस धार्मिक विरासत को सहेजने की फिक्र किसी ने नहीं की। सरकारी नुमाइंदों की नजर में ये हेरिटेज के दायरे में ही नहीं आती। हर युग की धरोहर यहां विलाप करती मिलती है। वृंदावन के पास सुनरख गांव में अति प्राचीन स्थली धूल धूसरित पड़ी है। यहां ब्रह्मा की चौथी पीढ़ी के सौभरि ऋषि का तपोवन है। गरुड़ से बचने के लिए सभी लोकों में भागते कालिय नाग ने यहां अपने प्राणों की रक्षा की थी। सौभरि ऋषि के शाप के कारण गरुड़ इस स्थान पर नहीं आ सकता था। ऋगवेदाचार्य सौभरि ऋषि के आश्रम तक पहुंच पाना आसान नहीं है।
वृंदावन के परिक्रमा मार्ग से सुनरख की दूरी दो किमी है। गांव के अंदर कालिंदी के निकट सौभरि ऋषि का आश्रम है। कीचड़ से भरी पगडंडी पर दो पहिया वाहन भी नहीं निकल सकते। यह तपोस्थली बरसों से ऐसी उपेक्षा झेल रही है। आश्रम में सौभरि ऋषि की गुफा व प्राचीन मूर्ति स्थापित है। गुफा में अब भी सर्प निकलते रहते हैं। आश्रम हरा भरा है। इससे जुड़े लक्ष्मण पांडे को सौभरि ऋषि की कथा मुंह जुबानी याद है। जिसे वह बड़ी रुचि से सुनाते हैं। “जे ऋषि भगवान राम ते ऊ चालीस पीढ़ी पहले भए हैं। ब्रह्मा की चौथी पीढ़ी (अंगिरा, घोर, कर्णव, सौभरि) में कर्ण पुत्र हैं। इन्नै या ठौर पै यमुना जी खड़े है कै हजारों बरस तक तपस्या करी। इन्नै राजा मांधाता की सौकन्या ते विवाह करौ और बिनके लै यहां सोने के महल बनवाये। जई वहज ते या गाम को नाम सुनरख पड़ौ।
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गाम के लोगन नै आश्रम के आसपास की सब जमीन घेर रखी है। गाम में गौतम ऋषि के वंशज रहमैं। बिनै स्थान कोऊ मतलब नया। ताते जे प्राचीन स्थान उपेक्षा की धूल फांक रहौ है। भागवत पढ़वे सुनवे वारौ नाय। आश्रम पास अबहू हरियासी बचाय राखी है। जामुन, बेलपत्र, बट, कदंब आदि के वृक्ष हैं
कथा
रमणकद्वीप में गरूड़ प्रतिदिन बहुत से नागों का विनाश करते थे।इससे व्याकुल सर्प एक दिन उनके पास पहुंचे और कहा कि ऐसे हमाटा जीवन कैसे सुरक्षित रहेगा। इसलिए प्रत्येक मास में हर घर से एक सर्प की बलि ले लिया करो। उसके साथ वनस्पति व अमृत समान अन्न की सेवा होगी। गरूड ने वैसा ही किया। अब कालिय के घर से बलि मिलने का अवसर आया। उसने सारी वस्तुएं बलपूर्वक स्वयं भक्षण कर लीं। गरूड़ को बहुत रोष आया। उन्होंने कालिय नाग पर पंजों से प्रहार किया। कालिय मूर्छित हो गया। कालिय ने अपने सौ फण फैलाकर गरूड़ को डंस लिया। तब गरूड़ ने उसे चोंच में पकड़ कर पृथ्वी पर दे मारा और पंखों से बारंबार पीटना आरंभ किया। कालिय फुंकारते हुए गरूड़ के पंखों को खींचने लगा। तब उनके पंखों से नीलकंठ और मयूर उत्पन्न हुए। क्रोधित गरुड ने कालिय को चोंच से पकड़कर जमीन पर पटक दिया और शरीर को घसीटने लगे। कालिया जान बचाकर भागा। गरूड उसका पीछा कर रहे थे । सातों द्वीप, खंड और सात समुद्रों तक जहां-जहां गया, गरुड़ ने पीछा किया। तब भयभीत होकर शेष जी के चरणों में आया और रक्षा की पुकार की। शेष भगवान बोले, संसार में कहीं भी तुम्हारी रक्षा नहीं हो सकती। इसका सिर्फ एक ही उपाय है। पूर्व काल में सौभरि नाम से प्रसिद्ध सिद्ध मुनि थे। उन्होंने वृंदावन में यमुना के जल में रहकर दस हजार वर्षों तक तपस्या की। उस जल में मीनराज का विहार देखकर उनके मन में घर बसाने की इच्छा हुई। तब उन महर्षि ने सत्ययुग के अंत में हुए चक्रवर्ती राजा मांधाता की सौ पुत्रियों संग विवाह किया। श्रीहरि ने उन्हें बहुत सारी संपत्ति प्रदान की। यमुना में सौभरि की दीर्घ कालिक तपस्या चल रही थी। उन्हीं दिनों वहां गरुड़ ने मीनराज को मार डाला। कुपित साभारि ने गरूड़ को शाप दे दिया। आज से यदि तुम इस कंड के भीतर बलपूर्वक मछलियों को खाओगे तो तुम्हारे प्राणा का अंत हो जाएगा। मुनि के शाप से भयभीत गरुड यहां कभी नहीं आते | इसलिए तुम वृंदावन चले जाओ । तब से कालिय कालिंदा में निवास करने लगा।
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