खंडहरों के बीच में बुलंदी से खड़ा खपाटिया का मुख्य द्वार कुछ व ज्यादा ही खूबसूरत लगता है। जयपुर शैली में बने इस द्वार ज बरवस ही निगाह चली जाती है। खपाटिया अपने साथ उन सभी कुंजों का दर्पण है जो संरक्षण के अभाव में जमींदोज हो चुकी हैं। उनके नाम सिर्फ इतिहास के पन्नों में रह गए हैं। कभी ये कुंजें यमुना किनारा मार्ग की शोभा बढ़ाती थीं। खैर, खपाटिया कुंज का द्वार खटखटाते हैं। केशी घाट पर स्थित खपाटिया कुंज ने अपना प्राचीन स्वरूप बचाए रखा है। जगमोहन में भी कला की चमक है। दीवारों पर पुष्प व पक्षी उकेरे गए हैं। खंभों को कुंभ कलश व आम्र पत्तों से सजाया गया है। गर्भगृह के रंगीन पतले खंभों का भी अपना सौंदर्य है। यहां राधा कृष्ण सीताराम के विग्रह विराज रहे हैं। राम जी को ठाकुर जानराय कहा जाता है। मंदिर के महंत जुगल किशोर कहते हैं कि “हमारे पूर्वज भरतपुर राजा के कुल गुरु थे। वर्तमान में हम ही कुंज की देखरेख करते हैं। जानराय जी का मंदिर रामानुज संप्रदाय से जुड़ा है। ठाकुर जी संत कूबा के इष्ट हैं। यह हिय की बात जानने वाले हैं, इसलिए जानराय कहलाते हैं। यहां छह आरती व चार भोग की सेवा है।”
भरतपुर राज्य के अधीन बैर नामक स्थान के निवासी महात्मा बालक दास ने सन् 1853 में इस कुंज की स्थापना की थी।बैर में खपाटिया बालकदास जी का मंदिर भी था। भरतपुर के राजाओं ने यह स्थान बनवाकर उन्हें भेंट कर दिया। बालकदास जी रामानंदी संप्रदाय से जुड़े थे।
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