कॉमनवेल्थ गेम्स 2018 में वेटलिफ्टिंग में गोल्ड मेडल जीतकर वाराणसी की बेटी पूनम यादव शुक्रवार दोपहर को अपने घर पहुंची. वाराणसी पहुंचने पर उनका भव्य स्वागत किया गया. उनपर फूल बरसाकर उनका स्वागत किया गया. उन्हें देखने के लिए सड़क के दोनों तरफ लोगों की भीड़ लगी हुई थी. कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मेडल जीतने को लेकर उन्होंने कहा कि मैं अपने प्रदर्शन और इस सम्मान से काफी खुश हूं. पूनम यादव ने 69 किलो वर्ग में गोल्ड मेडल जीता. 2014 में ग्लास्गो में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में पूनम यादव ने 63 किलो वर्ग में ब्रांज पदक जीता था.
सात भाई-बहन हैं वेटलिफ्टर पूनम यादव
पूनम के लिए ये सफर इतना आसान नहीं था. इसके लिए उन्होंने काफी मुश्किलें उठाई हैं. वाराणसी के ग्रामीण इलाके दांदूपुर में पूनम यादव के पिता कैलाश नाथ यादव किसी तरह अपने परिवार का पेट पाल रहे थे. उनकी सात संतानों में पांच बेटियां थीं. दूध बेचकर थोड़ी बहुत पुश्तैनी जमीन पर खेती कर जैसे-तैसे दो बेटियों की शादी की. साल 2000 था जब सिडनी ओलंपिक में कर्णम मल्लेश्वरी ने वेटलिफ्टिंग में कांस्य पदक जीता था. इस घटना ने कैलाश नाथ को एक मकसद दे दिया. उन्होंने बेटियों को खेल के प्रति उत्साहित करना शुरू किया. बेटियां गांव में ही प्राथमिक स्कूल में जाती थीं. स्कूल से आने के बाद वो दौड़ और वेटलिफ्टिंग शुरू कर दी. बड़ी बेटी शशि और पूनम ने पहले एथलेटिक्स और फिर वेटलिफ्टिंग की प्रैक्टिस घर पर ही शुरू कीं. बाद में दोनों बहनों ने पूरा ध्यान वेटलिफ्टिंग पर देना शुरू किया|
पूनम की छोटी बहन भी नेशनल नेवल की वेटलिफ्टर हैं
पूनम की छोटी बहन और राष्ट्रीय स्तर की वेटलिफ्टर पूजा यादव बताती हैं कि सीमेंट का वेट बनाकर शशि और पूनम ने प्रैक्टिस शुरू किया. गांव के लोग और रिश्तेदारों ने कैलाश को समझाना शुरू किया कि बेटियों की शादी करो, खिलाड़ी बनाने का भूत तुमपर जो चढा है उससे ऊबरो, लेकिन कैलाश ने जिद पकड़ ली थी की चाहे जो हो उन्होंने जो ठाना है पूरा करके रहेंगे. ये इतना आसान नही था, क्योंकि गांव से निकलकर किसी गरीब परिवार की बेटी का अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा तक पहुंचना असम्भव नहीं तो लोहे के चने चबाने जैसा तो है ही. कैलाश नाथ का वास्ता सिस्टम से जब पड़ा तब उन्हें ये एहसास हुआ की उन्होंने जो सपना पाला है उसकी कीमत कितनी है.
पशु बेचकर बेटी की तैयारी के लिए कर्ज लिया था
ये बताते हुए कैलाश नाथ यादव फफक पड़ते हैं कि कैसे उन्होंने बेटियों को तैयारी करने के उद्देश्य से कर्जा लेने के लिए भैंस बेच दी. कैसे एक-एक पैसा बचाने के लिए जतन करते थे. कैसे बेटियों के डाइट के लिए लोगों से उधार मांगते थें. लेकिन, ना तो सरकार ना ही सिस्टम और ना ही खेल विभाग ने उनकी कोई मदद की. यहां तक की कार्यालयों में सर्टिफिकेट्स और डॉक्यूमेंट्स के फोटोस्टेट भी उन्हें अपने पैसे से कराकर जमा कराना पड़ा. तीन बेटियों की वेटलिफ्टिंग प्रैक्टिस और उनकी डाइट, दो बेटों की जो हॉकी और एथलेटिक्स में करियर बनाना चाहते हैं, इनका खर्चा कैलाश के सामने एक बड़ी चुनौती थी.
सिस्टम और सरकार से किसी तरह की मदद नहीं मिली
खपरैल का मकान और दूध बेचने के सहारे के अलावा कैलाश के पास कुछ नही था. जैसे-जैसे सिस्टम से भरोसा उठता गया कैलाश नाथ यादव की श्रद्धा और भक्ति बढ़ती गई. 2010 में शशि को साई के लखनऊ सेन्टर में जगह मिली, जबकि 2011 में पूनम को. पूनम यादव को 2014 में कॉमनवेल्थ गेम्स में 63 किलोग्राम वर्ग में कांस्य पदक मिला और यहीं से रास्ते बनने शुरू हुए. 2015 के नेशनल में भी पूनम को पदक मिला. बाद में उन्हें रेलवे में टीटी की नौकरी भी मिली. शशि भी नेशनल लेवल कॉम्पीटिशन जीतकर रेलवे में नौकरी हासिल की.
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