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नई दिल्ली। रामविलास पासवान और सोनिया गांधी नई दिल्ली में वर्षों से पड़ोसी थे. दोनों में एक समानता देखी गई जिसे पुत्रमोह के नाम से जाना जाता है. जहां कांग्रेस पार्टी में बगावत थमने का नाम नहीं ले रही है, वही लोक जनशक्ति पार्टी का अगले महीने विभाजन संभव है। पार्टी के कुछ नेता चिराग पासवान (chirag paswan) से अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने की मांग कर रहे हैं। चिराग पर आरोप है कि वह बिना किसी से सलाह किए मनमानी ढंग से पार्टी चला रहे हैं और सिर्फ अपने परिवार और नजदीकी लोगों का ही खयाल रख रहे हैं।
चिराग स्वर्गीय रामविलास पासवान के इकलौते पुत्र हैं और पासवान की राजनीतिक विरासत संभालने की जिम्मेदारी अब उन पर आ गई है। पासवान ने पिछले साल पार्टी की कमान चिराग के हाथों में सौंप दी थी। पासवान की मृत्यु के ठीक पहले चिराग ने एनडीए गठबंधन से एलजेपी को अलग कर के अपने दम पर चुनाव लड़ने का फैसला किया. चिराग का दवा था कि यह फैसला पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से बात कर के ली गई और अब इसे ही चुनौती दी जा रही है. पासवान अस्पताल में थे और उनका स्वास्थ्य लगातार गिर रहा था. ऐसे में यह उम्मीद करना कि उन्होंने एलजेपी को एनडीए से अलग होने के प्रस्ताव को सोच समझ कर स्वीकृति दी होगी, इसे पार्टी का एक वर्ग मानने को तैयार नहीं है।
चिराग ने अजीबोगरीब फैसला लिया था. एनडीए से अलग होकर भी वह एनडीए का हिस्सा बने रहना चाहते थे। एलजेपी ने ऐलान किया कि पार्टी उन सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी जहां जनता दल (यूनाइटेड) का उम्मीदवार मैदान में होगा। चिराग का सपना था बीजेपी-एलजेपी की सरकार का गठन। किन्ही कारणों से चिराग जेडीयू के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से खफा थे। उन्होंने नीतीश कुमार को फिर से मुख्यमंत्री नहीं बनने देना ही अपना लक्ष्य बना लिया था, न कि एलजेपी का चुनाव में बेहतर प्रदर्शन। पर चिराग ने जो सोचा था, उसके ठीक विपरीत हुआ। एलजेपी बड़ी मुश्किल से एक सीट जीत कर अपना खता खोल पाई, एनडीए को बहुमत मिला और नीतीश कुमार एक बार फिर से मुख्यमंत्री बन गए।
चिराग ने फिर बीजेपी और जेडीयू में दरार पैदा करने की कोशिश की जिसमें वह असफल रहे। पासवान की मृत्यु से रिक्त हुए राज्यसभा सीट से वह अपनी माता रीना पासवान को राज्यसभा भेजना चाहते थे और इस बाबत उन्होंने बीजेपी से बात भी की. जिस पार्टी का सिर्फ एक विधायक हो और वह राज्यसभा सीट की मांग करे, यह बात लोगों को जंची नहीं। रामविलास पासवान को भी राज्यसभा की यह सीट बीजेपी के कोटे से मिली थी. पर बीजेपी ने पहले से ही मन बना लिया था कि समय आ गया है बिहार बीजेपी को सुशील कुमार मोदी के संरक्षण से मुक्त करने का ताकि नए नेतृत्व को उभरने का मौका मिले। उसके लिए मोदी को राज्यसभा भेजना और उनको केंद्र की राजनीति में लाना ज़रूरी था. लिहाजा बीजेपी ने चिराग की अनदेखी करते हुए सुशील मोदी की उम्मीदवारी की घोषणा कर दी और चिराग हाथ मलते रह गए।
अब चिराग का सपना है कि भले ही पिता की जगह उनकी मां को राज्यसभा सीट न मिली हो, शायद पिता की जगह उन्हें केंद्र में मंत्री बनने का मौका मिल जाए, जिसकी संभावना नहीं के बराबर हैं शिव सेना और अकाली दल का एनडीए से अलग होने का फैसला और फिर रामविलास पासवान का निधन, एनडीए सरकार के नाम पर नरेंद्र मोदी सरकार में रिपब्लिकन पार्टी के रामदास अठावले ही अब एकमात्र गैर-बीजेपी मंत्री बचे हैं। बीजेपी को इसकी खास परवाह भी नहीं है क्योकि पार्टी का लोकसभा में अपने दम पर बहुमत है।
राम विलास पासवान ने अपने पुत्र के लिए बड़े बड़े सपने देखे, जो हर पिता देखता है. उन्होंने भविष्यवाणी भी की कि अगले दस वर्षों में चिराग देश के बड़े नेताओं में गिना जाएगा. ठीक इसी तरह जैसे सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का सपना देखा था. चिराग पासवान अब तक दो बार लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं और अब उन्हें राजनीति में नवागंतुक की संज्ञा नहीं दी जा सकती. चिराग पासवान और राहुल गांधी में एक समानता है – दोनों अभी तक राजनीतिक परिपक्वता का परिचय नहीं दे पा रहे हैं, पर दोनों पार्टिया उनके इशारों पर ही चलती हैं. नतीजा, कांग्रेस पार्टी और एलजेपी की हालत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है. दोनों पार्टियों में बगावत की सुगबुगाहट शुरू हो गई है.
चिराग पर एक और आरोप है कि वे परिवारवाद को बढ़ावा देना चाहते हैं यहां यह बात सही है कि एलजेपी पासवान परिवार की संपत्ति बन गई है, पर इसके लिए चिराग पर आरोप लगाना गलत होगा। इसकी शुरुआत खुद रामविलास पासवान ने ही की थी. अपने साथ अपने दोनों छोटे भाइयों रामचंद्र पासवान और पशुपति कुमार पारस को भी सांसद और विधायक बनाया. रामचंद्र के निधन के बाद उनकी जगह उनके बेटे प्रिंस राज को सांसद बनाया जो पार्टी की बिहार इकाई के अध्यक्ष हैं और चिराग के करीबी भी पिछले हफ्ते चिराग ने एलजेपी में प्रिंस राज के सिवा सभी पदाधिकारियों को पदमुक्त कर दिया जिसके कारण बगावत की चिंगारी अब भड़कने लगी है।
वैसे राहुल गांधी और चिराग पासवान में समानता होने का एक और भी कारण है– दोनों का बचपन आसपास के बंगले में गुजरा है। देखना होगा कि क्या दोनों नेता जल्द ही परिपक्व हो जाएंगे और राजनीतिक विरासत संभाल पाएंगे? अन्यथा, परिवारवाद के बीच फंसी दोनों पार्टियों में मुसीबतें और बढ़ने की संभावना दिखने लगी है।
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