तय हो गया कि दिल्ली चुनाव के नतीजों को लेकर फिजूल का कुतूहल बनाया गया. एग्जिट पोल से तो बिल्कुल ही तय हो गया था कि भाजपा की जीत की कोई उम्मीद नहीं है. इसके पहले चुनाव पूर्व सर्वेक्षण भी भाजपा और आप के बीच कांटे की टक्कर पैदा नहीं कर पाए थे. फिर भी भाजपा के बड़े नेताओं ने चौंकाने वाले नतीजे की कुतूहल बनाए रखा था. नतीजे आने के बाद भाजपा की इस रणनीति का भी विश्लेषण होना चाहिए.
भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी
हारे हुए लोग एक जुमला हमेशा इस्तेमाल करते हैं कि हार पर आत्म मंथन करेंगे. हार के बाद हर नुक्ते पर सोच-विचार होता है. चुनाव में आजमाए गए मुद्दों के चयन पर सोचा जाता है. अपने चुनाव प्रबंधन की समीक्षा होती है. अपने वोट बैंक से ज्यादा दूसरों के वोट बैंकों के विभाजन पर गौर किया जाता है. और अगर गौर करें तो भाजपा अपने मुद्दों को लेकर कभी भी दुविधा में रहती नहीं है. दिल्ली में तो वह बिल्कुल भी दुविधा में नहीं थी. यानी इस मामले में भाजपा को कोई मलाल नहीं हो सकता. उसने अपने धार्मिक सांस्कृतिक मुद्दे को अधिकतम जितना तीव्र बनाया जा सकता था, उससे भी ज्यादा धारदार बनाकर यह चुनाव लड़ा था. लिहाजा कम से कम अपने इस मुद्दे को लेकर भाजपा के लिए ज्यादा मंथन की गुंजाइश निकलती नहीं है. दूसरा नुक्ता चुनावी प्रबंधन का है. इस मामले में आज भी भाजपा का कोई सानी नहीं. अब बचता है दूसरे दलों के मत विभाजन का. अभी देश के मशहूर चुनाव विश्लेषक इस नुक्ते पर पहुंचे नहीं हैं.
दो ध्रवीय था यह चुनाव
महीनों पहले चुनाव पूर्व सर्वेक्षण ने आक्रामक प्रचार करके दिल्ली चुनाव को दो ध्रुवीय बना दिया था. कभी दिल्ली पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस को सर्वेक्षण प्रचारों में शून्य करार दे दिया गया था. यानी कांग्रेस के पुश्तैनी मतदाताओं को संदेश दे दिया गया था कि इस बार उनकी कोई गुंजाइश नहीं है. चुनावी राजनीति में जीत की संभावनाएं मतदाताओं को जबरदस्त तौर पर प्रभावित करती हैं. जाहिर है कि कांग्रेस के पुश्तैनी मतदाता के पास अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वी भाजपा के विरुद्ध जाकर आप को वोट देने के अलावा कोई विकल्प था ही नहीं. यानी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कांग्रेस को इस बार सिर्फ पांच फीसद वोट मिलने का मतलब है कि भाजपा का वोट प्रतिशत आश्चर्यजनक रूप से बढ़ने के बावजूद वह आप से बहुत पीछे रह गई. भाजपा को अगर इस घाटे का किसी को जिम्मेदार ठहराना हो, तो अपने पक्ष वाली उन ओपिनियन पोल एजेंसियों को ठहराना चाहिए जिन्होंने चुनाव के पहले कांग्रेस की स्थिति जीरो बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अगर कांग्रेस की थोड़ी सी भी हैसियत बनाकर छोड़ी जाती, तो चुनावी नतीजों की शक्ल बदल जाती. यह रणनीति कितनी सुविचारित थी, इसका पता करना बहुत मुश्किल है, फिर भी हो सकता है कि आप के रणनीतिकार प्रशांत किशोर कभी यह रोचक रहस्य को उजागर कर दें.
एग्जिट पोल के बाद भी भाजपा का अति आशावाद?
इसे राजनीतिक विश्लेषक समझ नहीं पाए. एग्जिट पोल से नतीजों पर कोई फर्क पड़ना नहीं था. फिर भी अगर भाजपा नेताओं ने इतने यकीन के साथ अपनी जीत के दावे किए थे, तो उसके कारण और आधार जरूर रहे होंगे. इसमें कोई शक नहीं कि धर्म और नस्ल में वैमनस्य की राजनीति का कोई काट पूरी दुनिया में अभी तक ढ़ूंढा नहीं जा सका है. कोई भी सोच सकता है कि यह मंत्र खाली नहीं जा सकता. दिल्ली के चुनाव ने इस बात को काफी हद तक साबित भी किया. भाजपा के वोट प्रतिशत में आश्चर्यजनक रूप से बढ़ोतरी हुई है. अब तक की मतगणना में वह 33 फीसद से बढ़कर 40 फीसद के आंकड़े तक पहुंची है. लेकिन दो ध्रुवीय चुनावी समीकरण में यह सफलता नाकाफी साबित हुई. इसका सबक यह बनना चाहिए कि चुनावी राजनीति में अब अकेली धार्मिक वैमनस्य की राजनीति कारगर नहीं हो सकती. उसमें लोकतांत्रिक राजनीति, आर्थिक और सामाजिक तत्त्वों का मिश्रण करना ही सफलता को सिरे चढ़ा सकता था.
लोकतंत्र में कोई चुनाव आखिरी नहीं होता. भले ही दिल्ली में अब 5 साल बाद चुनाव होंगे लेकिन फौरन बाद ही बिहार और पश्चिम बंगाल सामने खड़े हैं. ऐसा हो नहीं सकता कि दिल्ली का असर उन विधानसभा चुनावों पर न पड़े. उसके आगे देश की राजनीति के निर्धारक यूपी में चुनाव होना है. इस लिहाज से दिल्ली के चुनाव नतीजों ने देश की भावी चुनावी राजनीति पर असर डाल दिया है. दिल्ली में आप की फिर से जीत के बाद अनुमान लगाया जा सकता है कि चुनावों में नागरिकों के सीधे सरोकार वाले मुद्दे ज्यादा असरदार होते जा रहे हैं. किताबी तौर पर इससे अच्छी बात हो भी क्या सकती है. आखिर कोई भी लोकतंत्र, नागरिकों के लिए उन्हीं की बनाई राजव्यवस्था ही तो होती है.
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