झारखंड के चुनावी महासमर में जदयू की नाव बिना कप्ताह के ही खेई जा रही है। जबकि दूसरी पार्टियों ने अपने प्रत्याशियों की जीत के लिए पूरा जोर लगा दिया है। दिल्ली दरबार की हस्तियां भी इस जोर आजमाइश को मजबूत बनाने के लिए कूद पड़ी हैं। रणनीति के तहत जदयू ने 48 प्रत्याशी मैदान…
रांची। झारखंड के चुनावी महासमर में जदयू की नाव बिना कप्ताह के ही खेई जा रही है। जबकि दूसरी पार्टियों ने अपने प्रत्याशियों की जीत के लिए पूरा जोर लगा दिया है। दिल्ली दरबार की हस्तियां भी इस जोर आजमाइश को मजबूत बनाने के लिए कूद पड़ी हैं। रणनीति के तहत जदयू ने 48 प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। चुनाव प्रचार में बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू प्रमुख नीतीश के आने से इनकार के बाद दूसरी पार्टियों की सरगर्मी देख पार्टी नेता-कार्यकर्ता और प्रत्याशी मायूस है। बुझे मन से प्रचार में लगे हैं।
भरोसे की लौ जलाने के लिए केवल प्रदेश प्रभारी सह बिहार के कल्याण मंत्री रामसेवक सिंह और सह प्रभारी अरुण कुमार मोर्चा संभाले हुए हैं। बीच-बीच में नीतीश के करीबी ललन सिंह भी आ रहे। नीतीश की गैरमौजूदगी में नीतीश मॉडल का सपना झारखंड की जनता को दिखा रहे हैं। इन परिदृश्यों के बीच अंदर ही अंदर आग सुलग रही है। चुनाव संपन्न होने के बाद इसके परिणाम आने की उम्मीद है।
नेता-कार्यकर्ताओं के मन में बस एक ही सवाल चल रहा है कि जब नीतीश को यही करना था तो चुनाव से एक साल पहले जदयू की जमीन झारखंड में मजबूत करने का अभियान क्यों शुरू कराया गया। पार्टी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर समेत बिहार के कई दिग्गज नेताओं ने झारखंड आना-जाना शुरू किया। पार्टी को खड़ा करने के लिए एक राज्यसभा सांसद भी पर्दे के पीछे से जुटे रहे। 7 सितंबर को नीतीश भी रांची पहुंचे और कार्यकर्ता सम्मेलन के बहाने चुनावी आगाज किया।
लेकिन अब यह सब बेकार होता दिख रहा है। पार्टी ने झारखंड में आदिवासी वोट बैंक को देखते हुए पूर्व सांसद सालखन मुर्मू को झारखंड की कमान सौंपी है। सालखन खुद मझगांव और शिकारीपाड़ा से प्रत्याशी हैं। ऐसे में वे अपने क्षेत्र में ही सिमट कर रह गए हैं। बाकी पार्टी प्रत्याशियों को समय नहीं दे पा रहे हैं। कहीं कोई बात नहीं है। भाजपा से केवल बिहार में गठबंधन है। झारखंड में आंतरिक समझौते की बात गलत है। नीतीश कह चुके थे कि वे प्रचार में नहीं आएंगे।
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