नई दिल्ली- गुजरात में दो दिनों में तीन कांग्रेसी विधायकों के इस्तीफे के बाद कहानी एकबार फिर घूमकर उसी मोड़ पर आ गई है, जब तीन साल पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खासमखास राजनीतिक सचिव अहमद पटेल चुनाव मैदान में थे। जबकि, भाजपा की कमान तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे भरोसेमंद और अभी के केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के हाथों में थी। वह सियासी ड्रामा काफी दिनों तक चला था। अहमद पटेल को राज्यसभा में पहुंचाने के लिए कांग्रेस अपने विधायकों को बेंगलुरू में पार्टी अध्यक्ष के भरोसेमंद डीके शिवकुमार के हवाले कर दिया था। वोटिंग के वक्त तक भाजपा और कांग्रेस की ओर से चूहे और बिल्ली का खेल चल रहा था। हालांकि, अंकगणित में अहमद पटेल का राज्यसभा पहुंचना मुश्किल लग रहा था। लेकिन, भाजपा को अपना ही एक दांव गलत हो गया और पटेल आश्चर्यजनक रूप से ऊपरी सदन पहुंच गए। तीन साल बाद गुजरात में इतिहास एकबार फिर से खुद को दोहरा रहा है। अब देखने वाली बात है कि इसबार शह और मात के खेल में बाजी किसके हाथ लगती है ?
गुजरात में चौथी सीट किसकी ?
मार्च से अबतक गुजरात में कांग्रेस के कुल 8 विधायक अपनी ही पार्टी को टाटा कह चुके हैं। नतीजा ये हुआ है कि विधानसभा में उसके सिर्फ 65 विधायक बच गए हैं। कांग्रेस के विधायकों के इस्तीफे और 2 विधायकों की सदस्यता जाने के चलते गुजरात विधायसभा में विधायकों की कुल संख्या 182 से घटकर सिर्फ 172 रह गई है। जबकि, भाजपा के पास अपने 103 विधायक हैं। 19 जून को गुजरात में होने वाले राज्यसभा चुनाव में 4 में से 2 पर बीजेपी और 1 पर कांग्रेस की जीत विधायकों की संख्या के आधार पर निश्चित लग रही है। लड़ाई चौथी सीट को लेकर है। भाजपा ने तीन और कांग्रेस ने दो उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस विधायकों ने विधासभा सदस्यता छोड़कर एक तरह पार्टी के मुंह से आया हुआ निवाला छीन लिया है। वैसे कांग्रेस अब भारतीय ट्राइबल पार्टी के दो, एनसीपी के एक और जिग्नेश मेवाणी (निर्दलीय) की ओर टकटी लगाए देख रही है। अब सवाल है कि कांग्रेस नेता अहमद पटेल 2017 की तरह ही इसबार भी पार्टी के हक में बाजी पलटने में कामयाब होते हैं या फिर इसबार भाजपा की रणनीति अचूक रहने वाली है।
2017 में अहमद पटेल की बढ गई थी टेंशन
2017 में अहमद पटेल को अपनी राज्यसभा की सदस्यता बरकरार रखनी थी। लेकिन, प्रदेश के चुनावी साल में कांग्रेस के 13 विधायकों के इस्तीफे से उनका सपना शून्य नजर आने लगा था। पार्टी ने अपने बचे हुए विधायकों को हवाई जहाज से बेंगलुरू भेजकर पार्टी के हाई-प्रोफाइल मैनेजर डीके शिवकुमार के संरक्षण में पहुंचा दिया। कांग्रेस विधायकों की खातिरदारी के लिए शिवकुमार ने अपने आलीशान रिजॉर्ट में सारा इंतजाम करवा रखा था। शर्त यही थी कि उनसे भाजपा का कोई नुमाइंदा संपर्क न करने पाए। उस वक्त कर्नाटक में कांग्रेस की सिद्दारमैया वाली सरकार थी, इसलिए भाजपा नेताओं के लिए वहां विधायकों के पास फटकना आसान नहीं था।
भाजपा ने तब भी फुलप्रूफ तैयार की थी
हालांकि, भाजपा नेताओं ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थी। अहमदाबाद और गांधीनगर में कांग्रेस के बागियों को मनाने-समझाने की सारी तैयारियां पूरी थी। तब चुनाव से थोड़े दिन पहले ही कांग्रेस छोड़ने वाले शंकरसिंह वाघेला के दो करीब विधायक राघवजी पटेल और भोलाभाई गोहिल ने कांग्रेस से बगावत कर दिया था। यानि उनका वोट भाजपा उम्मीदवार को जाना तय था। सबसे बड़ी बात है कि पटेल को पराजित करने के लिए तब बीजेपी ने कांग्रेस के ही एक वरिष्ठ नेता को उम्मीदवार बना दिया था, जो चुनाव से ठीक पहले ही भाजपा में आ गए थे। मतलब, तू डाल-डाल, मैं पात-पात वाले अंदाज में अमित शाह की अगुवाई वाली भाजपा ने अहमद पटेल हराओ अभियान की तैयारी फुलप्रूफ की थी।
अहमद पटेल के पक्ष में अंतिम वक्त में पलट गई थी बाजी
लेकिन, जब चुनाव का दिन आया तो कांग्रेस ने ऐसा कानूनी तिकड़म भिड़ाया कि भाजपा के धुरंधरों की सारी रणनीति धरी की धरी रह गई। कांग्रेस ने अहमद पटेल की जीत सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी शक्तिसिंह गोहिल पर डालकर उन्हें अहमद पटेल का चुनाव एजेंट बनाकर मतगणना केंद्र पर बिठा दिया। वोटिंग हुई तो गोहिल ने कांग्रेस के दोनों बागियों राघवजी पटेल और भोलाभाई गोहिल पर अपना बैलट पेपर भाजपा के चुनाव एजेंट को दिखाने का आरोप लगाकर हंगामा खड़ा कर दिया। दोनों का वोट अमान्य करने की मांग के चलते चुनाव प्रक्रिया रोक देनी पड़ गई। कांग्रेस का कहना था कि भाजपा एजेंट को बैलेट पेपर दिखाना असंवैधानिक है। फिर चुनाव आयोग में हुए कानूनी ड्रामे में कांग्रेस ने अपने महारथियों को उतार दिया। 7 घंटे के कानूनी दांव-पेंच के बाद आधी रात को चुनाव आयोग ने अहमद पटेल को विजेता घोषित कर दिया। यानि अगर वो दोनों वोट अमान्य नहीं होते तो पटेल का सपना टूटना तय था।
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