ओमप्रकाश तिवारी। कहते हैं सत्ता व्यक्ति के अंदर आत्मविश्वास पैदा कर देती है। इस बार शिवसेना की परंपरागत दशहरा रैली में यह बात प्रत्यक्ष दिखाई दी। 2019 की दशहरा रैली में शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे यह कहते सुनाई दिए थे कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटानेवाली भाजपा से गठबंधन न करता तो क्या इस निर्णय का विरोध करनेवाली देशद्रोही कांग्रेस को समर्थन देता? आठ अक्तूबर, 2019 को दशहरे के दिन उद्धव ने यह भी कहा था कि अनुच्छेद 370 रहित जम्मू-कश्मीर उनके पिता शिवसेना संस्थापक बालासाहब ठाकरे का सपना था। उद्धव ने यह भी याद किया कि उनके पिता अयोध्या में राम जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर भी देखना चाहते थे। मंदिर निर्माण शिवसैनिकों की मांग है।
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यानी 2019 की दशहरा रैली के वक्त शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे जानते थे कि केंद्र की भाजपा सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाकर अच्छा काम किया है। उद्धव ने यह भी कहा था कि भाजपा ने उनके पिता के ही सपनों को सच किया है। राम मंदिर के मुद्दे पर भी जिस वचन की बात वह पिछले वर्ष दशहरे पर कहते दिखाई दिए थे, वह वचन अब पूरा हो चुका है। यानी श्रीराममंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला आ चुका है और मंदिर निर्माण शुरू हो चुका है। ये काम उसी भाजपा के कार्यकाल में हुए हैं, जिसकी तरफ अंगुली उठाते हुए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने रविवार की दशहरा रैली में कई सवाल दागे। उनमें एक सवाल यह भी था कि बिहार में नीतीश कुमार के साथ जानेवाली भाजपा सेक्युलर हो चुकी है या नीतीश कुमार सांप्रदायिक?
बड़ी पुरानी कहावत है कि एक अंगुली किसी और की ओर उठाइए तो तीन अंगुलियां खुद अपनी ओर उठ जाती हैं। यही हुआ रविवार को उद्धव के साथ। जब वह भाजपा पर सेक्युलर होने का दोष मढ़ रहे थे तो उनकी तीन अंगुलियां खुद उनकी ओर थीं। महाराष्ट्र में वह उसी कांग्रेस के साथ आज सत्ता साझा करते देखे जा सकते हैं, जिसे पिछले दशहरे की रैली में उन्होंने खुलेआम देशद्रोही करार दिया था। सत्ता मिलने के बाद उन्होंने कभी विचार नहीं किया होगा कि बीते एक साल में कांग्रेस में क्या परिवर्तन आया? कांग्रेस के नेता तो अभी पिछले सप्ताह भी सत्ता में आने पर 370 खत्म करने की बात करते सुनाई दिए थे। यानी न तो कांग्रेस बदली है, न भाजपा में कोई वैचारिक बदलाव आया है तो बदला कौन है? यह बात मुख्यमंत्री उद्धव को सोचनी चाहिए।
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अब आते हैं कि पिछले साल भर में अर्जति उद्धव के आत्मविश्वास पर। पिछले दशहरे की रैली ठीक चुनाव के दौरान हुई थी। उस समय कुछ स्थानों पर मतदान हो चुके थे तो कुछ स्थानों पर होने बाकी थी। शिवसेना-भाजपा की संयुक्त चुनावी रैलियां भी बहुत अच्छी चल रही थीं। इतनी अच्छी कि उससे पहले के वर्षो में भी गठबंधन के दौरान इतना अच्छा तालमेल कभी नजर नहीं आया था। 24 अक्तूबर को चुनाव परिणाम आए तो शिवसेना ने ऐसी पलटी मारी, जिसकी कल्पना सपने में भी भाजपा ने नहीं की होगी।
करीब 34 दिन चली भीषण राजनीतिक उठापटक के बाद शिवसेना नेता उसी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष के द्वार पर हाजिरी बजाते दिखाई दे रहे थे, जिसे उनके अध्यक्ष ने चंद दिनों पहले दशहरे की रैली में देशद्रोही करार दिया था। फिर उसी कांग्रेस के समर्थन से शिवसेना ने राज्य की सत्ता भी पा ली। और अब पिछले साल भर में इतना आत्मविश्वास भी अर्जति कर लिया है कि वह यह चुनौती देने की स्थिति में भी आ चुकी है कि हिम्मत हो तो मेरी सरकार गिराकर दिखाओ। दरअसल यह आत्मविश्वास उसका खुद का नहीं, बल्कि उसके पीछे खड़ी कांग्रेस और राकांपा का दिया हुआ है। 2019 के विधानसभा चुनाव के समय तो इन दोनों दलों को सत्ता में आने की कोरी कल्पना भी नहीं थी। उनके मन में तो यह कल्पना ही शिवसेना ने पैदा की।
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जिसने कुछ भी पाने का स्वप्न न देखा हो, उसे महाराष्ट्र जैसे राज्य की सत्ता में साझीदार बनने का मौका मिल जाए तो वह किसी भी शर्त पर क्यों नहीं तैयार हो जाएगा? जब 1999 में तुरंत कांग्रेस छोड़कर निकले शरद पवार कुछ महीनों बाद उसी कांग्रेस के साथ मिलकर महाराष्ट्र में सत्ता स्थापना के लिए साथ आ सकते थे तो शिवसेना के साथ आने में भला क्या बुराई हो सकती है! लोगों को याद रखना चाहिए कि उस दौर में शिवसेना-भाजपा को धकिया कर बनी कांग्रेस-राकांपा की सत्ता पूरे 15 साल महाराष्ट्र में रही थी। इस त्रिपक्षीय सत्ता के शिल्पकार तो अब भी वही 1999 वाले शरद पवार ही हैं। वह जानते हैं कि शिवसेना मुख्यमंत्री पद के लिए ही भाजपा से अलग हुई है। उसे यदि मुख्यमंत्री पद देकर सत्ता की शेष मलाई अपने लिए रखी जाए तो इसमें बुराई क्या है? कांग्रेस भी यह सोचकर संतुष्ट है कि ना मामा से काना मामा ही अच्छा। इसलिए इस समझौते में तीनों दलों का हित सध रहा है और दो बैसाखियों पर खड़े मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का ‘कॉन्फिडेंस’ हाई है।
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