कोई भी सैनिक चाहे वह किसी भी रैंक का क्यों न हो, इस बुनियादी आधार पर काम करता है कि अगर उसे या उसके अंगों को कुछ हो जाता है तो उसका संगठन, उसके वरिष्ठ अधिकारी और उसका प्रतिष्ठान उसके परिवार की देखभाल करेंगे। इसलिए वह अपने जीवन को भी दांव पर लगा देता है। सेना का आधार विश्वास और भरोसा है। यह भावना सैन्य अभियानों में भी समान रूप से विद्यमान होती है और उन दुर्गम क्षेत्रों में भी, जहां किसी सैनिक से अपने कर्तव्य को अंजाम देने की अपेक्षा की जाती है।
सेना में किसी सैनिक के अधिकांश कार्यकाल में न केवल अराजकता विरोधी अभियान बल्कि वे स्थान भी शामिल होते हैं जहां जलवायु और दुर्गम क्षेत्रों के कारण उनका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। ऐसे क्षेत्र भारत के सभी सीमावर्ती क्षेत्रों में मौजूद हैं चाहे वे उत्तर भारत में हों या फिर पूर्वी सीमा में। हाल के दिनों में सियाचिन ग्लेशियर पर दुश्मनों की गोलीबारी की तुलना में अन्य कारणों से ज्यादा सैनिक हताहत हुए हैं।
ऐसे प्रतिकूल मौसम और दुर्गम क्षेत्रों से जुड़ी स्थितियों के बावजूद, सैनिकों से वहां लगातार मुस्तैद रहने की अपेक्षा की जाती है जिससे राष्ट्र की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके और दुश्मनों को ऊंचाई का लाभ हासिल न हो सके। ठंड के दौरान करगिल में तैनात सैनिकों को वापस बुलाये जाने की वजह से पाकिस्तान को घुसपैठ करने और उन ऊंचाई वाली चौकियों पर कब्जा करने का मौका मिल गया और उन चौकियों पर फिर से कब्जा करने के लिए हमें भारी कीमत चुकानी पड़ी। सैनिक सालों भर उन चौकियों पर तैनात रहते हैं जिनका संपर्क कई महीनों तक देश से कटा रहता है और वे केवल हवाई मार्ग से की जाने वाली आपूर्ति पर निर्भर रहते हैं।
ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में जहां विशेषज्ञ चिकित्सा सहायता की किल्लत रहती है वहां से जगह खाली करना भी काफी कठिन और समय लेने वाला होता है। ऐसे कई मामले हुए हैं जब सैनिकों को मौसम सहित विभिन्न कारणों से तत्काल जगह खाली नहीं कराई जा सकी। हाल के एक मामले में बेहद कठिन क्षेत्र में अराजकता विरोधी अभियानों में गश्त का नेतृत्व कर रहे एक युवा अधिकारी की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई।
हालांकि उनकी मृत्यु एक ऑपरेशनल क्षेत्र में रहने और अराजकता विरोधी दायित्वों को अंजाम देने के दौरान हुई थी लेकिन रक्षा मंत्रालय के पेंशन अधिकारियों ने कहा कि उन पर आश्रित परिजन ‘उदारीकृत पारिवारिक पेंशन’ पाने के हकदार नहीं हैं, जबकि अभी हाल तक यह नियम प्रचलन में था। यह बात भले ही बेतुकी है लेकिन यह सच है। उद्धत किया जा रहा कारण सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला है।
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार हस विशिष्ट मामले में सुप्रीम कोर्ट को 1972 का एक पत्र उपलब्ध कराया गया जिसे विद्यमान सरकारी प्राधिकारी के रूप में उद्धत किया गया था और इस प्रकार अदालत के फैसले को प्रभावित किया गया था। जिन लोगों ने इस पत्र को न्यायालय में प्रस्तुत किया, उन्होंने 1985 के बाद के सेना के एक आदेश को नजरअंदाज कर दिया जिसमें कहा गया था कि प्राकृतिक आपदाओं और बीमारी के कारण अंतरराष्ट्रीय सीमा या नियंत्रण रेखा पर काम करते समय होने वाले हताहतों को वित्तीय उद्वेश्यों केे लिए युद्ध हताहत माना जाएगा।
दो वर्ष पहले हुई एक घटना में एक समाचार पत्र में छपी खबर के आधार पर तत्कालीन रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन ने यह सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप किया था कि एक शौर्य चक्र विजेता सैनिक जो कश्मीर घाटी में बोला-बारूद डिपो में विस्फोट के कारण शहीद हो गया था, उसकी विधवा को उसका बकाया मिल जाए। उदारीकृत पारिवारिक पेंशन के लिए शहीद के परिवार के आग्रह को रक्षा लेखा विभाग द्वारा यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया गया था कि मृत्यु आग लगने से हुई न कि आतंक विरोधी अभियान में, जबकि सैनिक की मौत आग से लड़ने और दूसरों की जान बचाने के दौरान हुई थी।
रक्षा मंत्रालय ने कोई सबक नहीं सीखा है। उसकी नकारात्मकता इसी बात से प्रदर्शित होती है कि उसके कर्मियों ने कभी भी ऐसे खतरनाक इलाके में सेना के साथ दौरा नहीं किया या उसके साथ सैन्य अभियानों में भाग नहीं लिया है इसलिए उन्हें इसका कोई अहसास नहीं है। जॉर्ज फर्नान्डीज गलती करने वाले रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों को उनके द्वारा देरी किए जाने या गैर जिम्मेदाराना बर्ताव पर या तो जाड़े में सियाचिन भेज देते थे या गर्मियों में 50 डिग्री सेल्सियस की गर्मी में रेगिस्तान की चौकियों पर भेज देते थे, लेकिन जॉर्ज के बाद किसी भी रक्षा मंत्री ने ऐेसा नहीं किया है। इससे उन लोगों का हौसला बढ़ गया है जो शायद केवल पूर्व सैनिकों को दिए जाने वाले वाजिब पेंशन को रोकने के लिए ही वातानुकूलित कमरों में बैठे रहते हैं।
इसी के साथ-साथ रक्षा मंत्री द्वारा एक सैनिक के परिवार को लिखा गया एक सराहना पत्र है जिससे उनकी मुलाकात सियाचिन जाते समय हुई थी। क्या यह तर्कसंगत है कि जहां एक रक्षा मंत्री प्रतिकूल और दुर्गम क्षेत्र में कर्तव्य का निर्वाह करने जा रहे सैनिक के परिवार को पत्र लिखते हैं, राष्ट्र के प्रति उसकी सेवा की सराहना करते हैं, उन्हीं के अधीन उनका मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट को गलत विवरण पेश करता है और सैनिकों के परिवार को मिलने वाले वाजिब हक को प्रभावित करने की कोशिश करता है जिन्होंने विषम जलवायु परिस्थितियों के कारण अपनी जान गवां दी?
भारतीय नौकरशाही प्रणाली कितनी विवकेशून्य हो सकती है? क्या देश उन लोगों के साथ, जिन्हें वह इतनी दुर्गम और प्रतिकूल परिस्थितियों में सेवा करने के लिए भेजता है, इतनी बेदर्दी के साथ पेश आ सकता है? क्या रक्षा मंत्रालय, जो सशस्त्र बलों का प्रभारी है, इतना बेपरवाह है कि वह बगैर तथ्यों की छानबीन किए सुप्रीम कोर्ट को डाटा भेज सकता है ? क्या सुप्रीम कोर्ट वास्तविकता जान लेने पर उनकी खिंचाई नहीं कर सकता है जो ऐसी गलतियों के लिए जिम्मेदार हैं? रक्षा मंत्रालय को इन प्रश्नों पर विचार करने की आवश्यकता है।
पहला कदम खुद रक्षा मंत्री द्वारा ही उठाया जाना चाहिए। अपने लापरवाह अधिकारियों की खिंचाई करने के अतिरिक्त उन्हें ऐसे सभी अदालती मामलों पर रोक लगा देनी चाहिए और उनकी समीक्षा का आदेश देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को गलत तथ्य प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति के साथ तरीके से निपटा जाना चाहिए। इसके साथ-साथ, रक्षा मंत्री को शीर्ष न्यायालय को गलत विवरण प्रस्तुत करने के कारण सही बकाये के भुगतान का आदेश देना चाहिए। मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों में चिकित्सा की कमी के कारण जिन सैनिकों ने जानें गवां दीं, उनके आश्रितों को कष्ट सहने के लिए छोड़ नहीं दिया जाना चाहिए।
हम इस स्थिति में क्यों पहुंच गए हैं? रक्षा मंत्रालय अलग थलग होकर काम करता है, परस्पर संयोजन और समन्वय करने का अनिच्छुक है और सेना मुख्यालयों के साथ एक टीम के बतौर काम करता है। इसका परिणाम यह है कि सेना का कोई प्रतिनिधि नहीं होने कारण, रक्षा मंत्रालय के अधीन नौकरशाह अपने खुद के नियमों तथा विनियमनों को व्यक्त करते हुए सशस्त्र बलों की देखभाल का नाटक करते रहते हैं।
सैनिकों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करना और उन्हें उनके वाजिब हक से वंचित करना एक अपराध है और जो लोग इसके पीछे हैं, उन्हें आपराधिक लापरवाही के लिए दंडित किया जाना चाहिए। जब तक इनके खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर आवाज नहीं उठाई जाती, ऐसी लापरवाही जारी रहेगी, निर्दोष परिवारजनों को कष्ट उठाना होगा और उन्हें न्याय पाने के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाते रहने को मजबूर होना पड़ेगा।
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