लगभग चार दशक बाद विपक्ष नारा लगा रहा है, ‘भाजपा हटाओ-देश बचाओ’ या ‘मोदी-हराओ देश बचाओ’। चार दशक का वक्त कोई कम नहीं होता। पर, नारे एक जैसे हैं। लक्ष्य भी एक-सा है।
अस्सी के दशक में विपक्ष का नारा था, ‘कांग्रेस हटाओ-देश बचाओ’ या ‘इंदिरा हराओ-देश बचाओ’। लगभग चार दशक बाद विपक्ष नारा लगा रहा है, ‘भाजपा हटाओ-देश बचाओ’ या ‘मोदी-हराओ देश बचाओ’। चार दशक का वक्त कोई कम नहीं होता। पर, नारे एक जैसे हैं। लक्ष्य भी एक-सा है। सत्तारूढ़ दल को हराने के लिए विपक्षी एकजुटता की जद्दोजहद जारी है। बदले हैं तो सिर्फ किरदार। हां! कुछ का दिल बदला, तो दल भी बदल लिए। नारों के पात्र बदल गए। सियासी दलों का मतदाताओं पर फोकस का तौर-तरीका बदल गया। मतदाताओं की प्राथमिकता बदल गई। राजनेताओं की भूमिका भी बदल गई। तब भाजपा अस्तित्व के संघर्ष से जूझ रही थी और अब कांग्रेस जूझ रही है।
वामपंथी खेमा अस्त हो गया और समाजवाद भी पस्त हो चुका है। जातीय राजनीति ने उछाल मारा तो बसपा जैसे दल उभर गए। क्षणिक उभार के बाद हिंदुत्व की लहर के नीचे ये सब दबते चले गए। पर, यह सब रातों-रात नहीं हो गया। इस सबके पीछे एक लंबी कहानी है। बदलाव की इस कहानी का विश्लेषण करें तो केंद्र में दिखता है-अयोध्या का श्रीराम जन्मभूमि मंदिर, जिसने हिंदुओं को एक राजनीतिक ताकत के रूप में बदल दिया। मुस्लिम वोटों के वर्चस्व को तोड़ दिया। यही नहीं राजनीतिक परिदृश्य को भी बदल दिया।
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