अगर प्रियंका गांधी, पीएम मोदी की सीट वाराणसी से चुनाव लड़ती हैं तो आंकड़ो के हिसाब से…




नई दिल्ली: रायबरेली में जब एक कार्यकर्ता ने कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी से रायबरेली से चुनाव लड़ने को कहा तो प्रियंका गांधी ने जवाब दिया कि वाराणसी से क्यों नहीं? हालांकि प्रियंका गांधी ने यह जवाब बहुत ही हल्के-फुल्के में अंदाज में दिया था लेकिन इस बात के कयास लगनाए जाने से शुरू हो गए हैं कि क्या सच में प्रियंका गांधी वाड्रा वाराणसी में पीएम मोदी को चुनौती देने की तैयारी कर रही हैं. बात करें 2014 के लोकसभा चुनाव की तो वह एक दौर था जब वाराणसी में केसरिया रंग के आगे बाकी सारे रंग फीके पड़ गए थे. लेकिन बीते 5 सालों में गंगा में काफी पानी बह गया है और सवाल इस बात का है कि क्या काशी फिर से ‘नमो’ के लिए तैयार है या फिर किसी और विकल्प में तलाश में है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा और बसपा के गठबंधन ने वोटों के गणित को बदल दिया. दोनों के संयुक्त वोटबैंक ने कई सीटों के समीकरण बदल दिए हैं. वाराणसी भी इससे अछूती नहीं है अगर प्रियंका गांधी यहां पर विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ती हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राह मुश्किल हो सकती है. 2014 के चुनाव में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को कुल 5,81,022 वोट मिले थे. नरेंद्र मोदी अपने निकटतम प्रतिद्वंदी अरविन्द केजरीवाल से तकरीबन 3 लाख 77हज़ार वोटों से हराया था. दूसरे स्थान पर रहने वाले आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को 2,09,238 वोट मिले. जबकि कांग्रेस प्रत्याशी के अजय राय को 75,614 वोट, बीएसपी को तकरीबन 60 हज़ार 579 वोट, सपा को 45291 वोट मिले थे. यानि सपा-बसपा और कांग्रेस का वोट जोड़ दे तो 3लाख 90 हज़ार 722 वोट हो जाते हैं. मतलब पीएम मोदी की जीत जो अंतर था वह सभी दलों के संयुक्त वोट बैंक से पीछे हो जाता है. सवाल इस बात है कि जिस तरह से सपा-बसपा ने रायबरेली और अमेठी में अपने प्रत्याशी न उतारने का फैसला किया है अगर प्रियंका वाराणसी से चुनाव लड़ती हैं तो क्या उनके लिए भी रास्ता खाली कर दिया जाएगा.




बात जातिगत समीकरण की करें तो वाराणसी में बनिया मतदाता करीब 3.25 लाख हैं जो कि बीजेपी के कोर वोटर हैं. अगर नोटबंदी और जीएसटी के बाद उपजे गुस्से को कांग्रेस भुनाने में कामयाब होती है तो यह वोट कांग्रेस की ओर खिसक सकता है. वहीं ब्राह्मण मतदाता हैं जिनकी संख्या ढाई लाख के करीब है. माना जाता है कि विश्वनाथ कॉरीडोर बनाने में जिनके घर सबसे ज्यादा हैं उनमें ब्राह्मण ही हैं और एससी/एसटी संशोधन बिल को लेकर भी नाराजगी है. यादवों की संख्या डेढ़ लाख है. इस सीट पर पिछले कई चुनाव से यादव समाज बीजेपी को ही वोट कर रहा है. लेकिन सपा के समर्थन के बाद इस पर भी सेंध लग सकती है. वाराणसी में मुस्लिमों की संख्या तीन लाख के आसपास है. यह वर्ग उसी को वोट करता है जो बीजेपी को हरा पाने की कुवत रखता हो.

इसके बाद भूमिहार 1 लाख 25 हज़ार, राजपूत 1 लाख, पटेल 2 लाख, चौरसिया 80 हज़ार, दलित 80 हज़ार और अन्य पिछड़ी जातियां 70 हज़ार हैं. इनके वोट अगर थोड़ा बहुत भी इधर-उधर होते हैं तो सीट का गणित बदल सकता है. आंकड़ों के इस खेल को देखने के बाद अगर साझेदारी पर बात बनी और जातीय समीकरण ने साथ दिया तो प्रियंका गांधी मोदी को टक्कर दे सकती हैं. हालांकि मोदी ने जिस तरह से पिछले साढ़े चार सालों में वाराणसी में विकास के जो काम किया है क्या उसे नजरंदाज किया जा सकता है, यह भी अपने आप में एक बड़ा सवाल है. लेकिन अगर प्रियंका वाराणसी से चुनाव लड़ती हैं तो हार जीत से पहले कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक बड़ा संदेश में कामयाब हो जाएगी.

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