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नई दिल्ली। नई शिक्षा नीति के तहत सिलेबस में हिन्दी अनिवार्य किये जाने के फैसले को रद्द कर दिया गया है. हिन्दी को अनिवार्य बनाए जाने के बाद खड़े हुए विवाद पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने रविवार को मसौदा के विवादास्पद हिस्सों को जनता के विचारों के लिए रखा है। सरकार की ओर से किए गए बदलाव के तहत हिन्दी को अनिवार्य रखने की शर्त हटा दी गई है. न्यू एजुकेशन पॉलिसी में भारत सरकार ने सोमवार सुबह बदलाव किया।
इससे पहले पॉलिसी में तीन भाषा फॉर्मूले के तहत अभ्यर्थी की मूल भाषा, स्कूली भाषा के साथ-साथ तीसरी भाषा के तौर पर हिन्दी को अनिवार्य किये जाने की बात की गई थी. हालांकि सोमवार को जारी किए गए पॉलिसी में फ्लेक्सिबल शब्द का प्रयोग किया गया है.
सरकारी सूत्रों ने बताया, ‘हिंदी थोपने का इरादा कभी नहीं था. जिस तरह से मसौदे को माना जा रहा था वह तीन-भाषा के फॉर्मूले की भावना के विपरीत था. इसीलिए बदलाव किए गए हैं. यह यू-टर्न नहीं है.’ ड्राफ्ट में किए गए बदलाव के बाद अब स्कूली भाषा और मातृभाषा के अलावा जो तीसरी भाषा होगी उसका चयन खुद छात्र कर सकेंगे.
यह है पूरा मामला
बता दें पिछली एनडीए सरकार में जब प्रकाश जावड़ेकर मानव संसाधन विकास मंत्री के पद पर थे, जब उन्होंने प्रमुख वैज्ञानिक के कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में एक पैनल गठित किया था. इस पैनल ने नई शिक्षा नीति का ड्राफ्ट अब सरकार को सौंप दिया है, जिसमें अहिंदीभाषी राज्यों में हिंदी पढ़ाने का प्रस्ताव रखा गया है.
इस प्रस्ताव के सामने आने के बाद से ही दक्षिण भारत से इस प्रस्ताव का विरोध शुरू हुआ और कई नेता कह रहे थे कि सरकार किसी राज्य पर कोई और भाषा न थोपे। गौरतलब है कि तमिलनाडु में प्रभावशाली पार्टी डीएमके के प्रमुख एमके स्टालिन ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा था कि ये फैसला ‘मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर फेंकने जैसा’ होगा. वहीं, पार्टी के टी शिवा ने कहा था कि केंद्र सरकार ऐसे फैसले से आग से खेलने की कोशिश कर रही है.
मंत्रालय ने दिया था स्पष्टीकरण
दक्षिण भारत से शुरू हुए विरोध के बाद मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने स्पष्टीकरण दिया था कि यह केवल प्रस्ताव है, जिसे अभी किसी तरह की सरकारी नीति में शामिल नहीं किया गया है. केंद्रीय एचआरडी मंत्री रमेश पोखरियाल ने ऐसे विरोधी बयानों को गलतफहमी का शिकार होना करार दिया था. दूसरी ओ, डीएमके के अलावा सीपीआई और भाजपा की सहयोगी पार्टी रही पीएमके ने भी इसी आशय के बयान दिए थे कि सरकार का ये तीन-भाषा फॉर्मूला दक्षिण भारत में हिंदी थोपने जैसा ही है.
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