सालिगिराम पिटारी में भए राधारमन तहाहीं, ते श्री राधारमन अवें घेरे के बीच विराजें
सालिगिराम चिन्ह अवलौं जिनकी सुपीठि पर राज, भोग राग तिहि कौ सौ अब किहु दूजे मंदिर नाहीं
पीठि पर रेखपा दोऊ असन में चक्र सोलें, अंगुल कौ वपु स्याम अनूपम तन है
गोविंददेव कौ सौ मुख गोपीनाथ कौ सौ हिय, मदनमुहन केसे राजत चरन है
वैशाख मास पूर्णमासी चंद बार पंद्रह सै, निन्यानवै गुपाल संवत वरण है।
विशाखा नक्षत्र सानुकूल गृह निसिसेख, सालिग्राम जब भाए राधिकारमन हैं ।
मंदिर तो बहुत हैं पर जो मन को मंदिर बना दे, वो है राधारमण। जगमोहन में कदम रखते ही रोम-रोम पावन हो जाता है। दिव्यता और असीम शांति के वातावरण में संगीत की स्वर लहरियां मानों अमृत घोल देती हैं। राधा रमण परम सुखदायी… मैया मोहे माखन मिश्री भावै… मीठो दधि मिठाई मधुघृत, अपने कर सों क्यों न खवावे…पदों के इस निझर में भक्त बहता ही चला जाता है। पर्दा हटते ही राधारमण से साक्षात्कार होता है। त्रिभंगी मुद्रा में वंशी बजाते कटीले नयनों वाले आंवले की नयनाभिराम झांकी है। अधरों पर भुवन मोहिनी मुस्कान है। निरख निरख नयन नाय हारैं, राधारमण पै मन प्राण वारैं। शालग्राम की शिला से प्रकटे राधारमण के दरस पाकर हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। राधा रमण जी षट गोस्वामियों से एक गोपाल भट्ट के उपास्य देव हैं। गोपीनाथ-निधिवन के मध्य वाले मार्ग पर स्थित मंदिर में सादगी का सौंदर्य है। भोग, राग और सेवा की परंपरा का यह अनूठा स्थान है। मंदिर में राधा रानी की गादी सेवा होती है। औरंगजेब के काल में राधारमण जी के विग्रह को कुएं में छिपा दिया गया था । इसलिए राधा रमण रूपी निधि वृंदावन से बाहर नहीं गई। गौड़ीय संप्रदाय से जुड़े मंदिर के सेवायत अनिल गोस्वामी कहते हैं कि “चैतन्य महाप्रभु की दक्षिण यात्रा में बैंकट भट्ट जी से उनका मिलन हुआ। बैंकट भट्ट के पुत्र गोपाल भट्ट, जो छोटी अवस्था में थे, ने पिता से महाप्रभु के साथ जाने के लिए कहा। चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें वृंदावन जाकर भजन करने का निर्देश दिया। मंदिर के समीप प्राकट्य स्थल (जिसे डोल भी कहते हैं) में गोपाल भट्ट ने साधना की। वह शालग्राम की बटिया की पूजा करते थे। एक दिन किसी भक्त ने उन्हें पोशाक । भेंट की। गोपाल भट्ट जी के हृदय में विचार आया कि मैं इन्हें पोशाक धारण ही नहीं करा सकता। इस विचार ने उन्हें उद्विग्न कर दिया। व्याकुलता की पराकाष्ठा हो गई। भक्त की साधना, आराधना के फल प्रतीक के रूप में वैशाख पूर्णिमा की रात्रि में सन् 1542 (संवत 1599) को शालग्राम की शिला से राधारमण जी प्रकट हुए। गोविंद देव, गोपीनाथ, मदनमोहन, तीनों के सम्मिलित दर्शन का सौभाग्य सिर्फ राधारमण के दर्शन करने से मिल जाता है। सेवा पूजा राधा रमणीय गोस्वामी करते
हैं। हमारे यहां ठाकुर जी की सेवा को उत्सव के रूप में मनाया जाता है।” राधारमण मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता परंपराओं का निर्वहन है। करीब पांच सौ बरस पहले जो अग्नि प्रज्ज्वलित की गई थी, वो अनवर जल रही है। उसी से ठाकुर जी की आरती, दीया व प्रसाद बनता है। विधिवत कीर्तन में ठाकुर जी को पद सुना और रिझाया जाता है। यहां अपरस की सेवा है। बाहर का भोग नहीं लगता। अपनी रसोई में जितना प्रसाद बनता है, उसका भोग राधारमण को अर्पित किया जाता है। कुलिया भोग मुख्य है। चैतन्य महाप्रभु द्वारा गोपाल भट्ट को प्रदान किए गए वस्त्र और पट्टा मंदिर में मौजूद है। विशेष उत्सव जन्माष्टमी और प्राकट्य की पूर्णिमा पर उनके दर्शन होते हैं। डोल में गोपाल भट्ट जी की समाधि है।
इतिहास
राधारमण जी के प्राकट्य के बाद उन्हें छोटे से मंदिर में विराजमान किया गया। सन् 1628-1693 तक कुट ठाकुर जी उसी में प्रतिष्ठित रहे । लखनऊ के शाह बिहारी लाल ने सन् 1826 में नवीन कलात्मक मंदिर का निर्माण कराया था। वर्तमान में उस दिवाली में ठाकुर राधारमण बिहारी लाल विराजमान हैं।
उत्तर भारत का पहला विष्णुप्रिया मंदिर
प्रांगण में स्थित अन्य मंदिर में चैतन्य महाप्रभु व उनकी पत्नी विष्णुप्रिया जी के दर्शन हैं। नवदीप के बाद उत्तर भारत में संभवतः यह उनका प्रथम मंदिर है।4 फरवरी 2014 को विष्णुप्रिया जी के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की गई थी। यह मंदिर प्राचीन भजन कुटी के स्थान पर बनाया गया है।
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