केदारनाथ घाटी में मची तबाही

तमाम शहरों में किन वजहों से बाढ़ जैसे हालात पैदा हो रहे हैं अब उस पर अध्ययन किए जाने की जरुरत है। इससे पता चल सकेगा कि आखिर हम कब इनसे बच पाएंगे

नई दिल्ली। बाढ़ आना और उफन जाना, नदी की दो अलग-अलग भौतिक स्थितियां हैं। परंपरागत निकासी मार्गों के जरिए, नदी का उसके सुनिश्चित पाट के उस पार फैल जाना, बाढ़ कहलाता है। बाढ़ अधिक बारिश का स्वाभाविक परिणाम होती है। इस कारण भी बाढ़ नुकसानदेह कम लाभदायक अधिक होती है। किंतु यदि प्रवाह का वेग इतना तीव्र हो जाए कि नदी मिट्टी को काटकर किसी नये निकासी मार्ग की यात्रा पर निकल जाए तो यह स्थिति लाभकारी कम, विनाशक ज्यादा होती है। इसका कारण नदी का क्रोधित हो जाना है।

इसी को हम नदी का उफन जाना कहते हैं। नदियां माता हैं। मां यूं ही क्रोधित नहीं होती है। ऐसा तभी होता है, जब नदी के चरित्र अथवा प्रकृति के जलचक्र के साथ कोई संगीन छेड़छाड़ की जाए। इसे समझने के लिए केदारनाथ घाटी में मची तबाही तथा चेन्नई में हुए विनाश का अध्ययन करना चाहिए। हिमालयी नदियों का चरित्र थोड़ा भिन्न होता है। बारिश, इनमें पानी के साथ-साथ मिट्टी और पत्थर भी लेकर आती है।

पहाड़ी सीमा में इनका तल अधिक कटाव युक्त तथा ढाल तीव्र होती है। इसके प्रवाह मार्ग के बाधित होने पर यह अपने शुरुआती पड़ावों में भी उफन सकती है। सुरंग, सड़क, बांध और भूगर्भ संरचना और नदी किनारे बसावट के जरिये हिमालयी नदियों के समक्ष ऐसी ही बाधाएं खड़ी की जा रही हैं।

निसंदेह बादल फटना या कहें कि कम समय में अधिक वर्षा होने पर भी नदियां उफन सकती हैं। अयोध्या में लगातार पिछले पांच दिनों में पचास दिनों की बरसात हो गई। सरयू नदी जुलाई मध्य में ही खतरे के निशान के करीब पहुंच गई। जलवायु परिवर्तन के कारण अब ऐसा होता ही रहेगा। आषाढ़ की फुहार, सावन की झड़ी और भादों में चमकती बिजली और उमड़ती काली घटाओं वाला भारतीय वर्षा का पारंपरिक चरित्र अब बचेगा नहीं।

इंद्रदेव के वेग से बरसते जल को भूमि के संपर्क में आते ही वरुण देव को विनम्र गति प्रदान करने का काम ताल-तलैया, ऊंची झाड़ियां और शिवजटा सी गुत्थी जड़ों वाले पेड़ों का है। यदि इन्हें बेकार मानकर नष्ट कर दिया जाए तो नदी तक पहुंचने वाले वर्षाजल की मात्रा तथा वेग दोनों ही इतना अधिक होंगे कि नदियां न चाहते हुए भी उफनने को मजबूर हो जाएंगी।

हकीकत यह है कि ऊबड़-खाबड़ भूगोल को छोड़कर हम समतलीकरण को बढ़ावा दे रहे हैं। सौंदर्यीकरण के नाम पर झाड़-झंखाड़ तथा सड़क, विकास व शहरीकरण के नाम पर पचास, सौ साल पुराने दरख्तों का सफाया कर

रहे हैं। नदी पुनर्जीवन के नाम पर छोटी नदियों के तल को ढालदार बना देना संबंधित बड़ी नदी के वेग को बढ़ाना वाला साबित हो रहा है। चारधाम सड़क परियोजना का मलबा नदियों में डाल रहे हैं। गाद का काम है, नदी के साथ बहकर जाते हुए उपजाऊ मैदानों तथा डेल्टा का निर्माण करना। गाद ही साल दर साल नदी किनारों के इलाकों का भू-स्तर बनाए रखती है।

यदि यही गाद नदी में जम जाए तो नदी जलग्रहण क्षमता घटेगी। नदी नया प्रवाह मार्ग चुनने को मजबूर होगी। गाद को बहने के लिए एक खास वेग की जरूरत होती है। बांध, तटबंध नदी किनारे की बसावटें, जलमार्ग के नाम पर नदियों का दोहन हो रहा है। यदि नदी की गहराई, चौड़ाई, प्रवाह मार्ग तथा बाढ़ क्षेत्र के साथ नाजायज व्यवहार होगा तो नदियां उफनाएंगी। दोषी नदियां नहीं उनके साथ गलत व्यवहार करने वाले हम खुद हैं।

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*