नई दिल्ली। कोरोना लॉकडाउन के चलते स्कूल और पढ़ाई का सिस्टम बदल चुका है। कल तक जो बच्चे वैन या बस में बैठकर पब्लिक स्कूल जाते थे। उन्होंने अब पास के सरकारी स्कूल में दाखिला ले लिया है। वहीं बहुत सारे प्राइमरी स्कूल के बच्चे इस लिए ऑनलाइन क्लास नहीं ले पा रहे हैं क्योंकि उनके पास एंड्रॉइड या स्मार्ट मोबाइल फोन नहीं है। जहां फोन है भी तो वो घर के बड़े सदस्य के पास है। वो 4 घंटे पढ़ाई के लिए फोन देकर अपना काम रोकने की हालत में नहीं हैं। किसी-किसी घर में तो सिर्फ की-पैड वाला ही मोबाइल है। यह हाल सिर्फ दिल्ली-एनसीआर से सटे गांवों का ही नहीं, शहरों का भी है।
स्कूल का नाम न छापने की बात पर दिल्ली-एनसीआर के नोएडा, फरीदाबाद, दिल्ली और गाजियाबाद में नर्सरी से इंटर तक 5 स्कूल चलाने वाले संजय बताते हैं, “स्कूल और पढ़ाई को लेकर साल 2020 से हालात बहुत बदल गए हैं। पब्लिक स्कूल में आने वाला बच्चा इतने सक्षम परिवार से तो आता है कि वो ऑनलाइन क्लास के लिए एक एंड्रॉइड या स्मार्ट मोबाइल खरीद सके। लेकिन यहां परेशानी फीस की आ गई है। शुरुआत में तो बहुत सारे अभिभावक ने लिखित में यह दरख्वास्त दी कि कुछ वक्त के लिए उनके बच्चों की फीस कम कर दी जाए या माफ कर दी जाए।
लेकिन टीचर्स की सैलरी और दूसरे भारी-भरकम खर्चों के चलते फीस माफ करना या कम करना हमारे लिए मुमकिन नहीं है। थोड़ वक्त तक तो बच्चों के अभिभावकों ने यह सब किसी भी तरह से मैनेज किया, लेकिन उसके बाद अपने बच्चों को स्कूल से निकालना शुरु कर दिया।”
एक फाइनेंस कंपनी के फील्ड अफसर विशाल चतुर्वेदी का बेटा होली पब्लिक स्कूल की 8वीं क्लास में था। फीस और ट्रांसपोर्ट का हर महीने मोटा खर्च न निकाल पाने के चलते विशाल ने उसका नाम कटवाकर पास के दूसरे स्कूल में करा दिया है। यह स्कूल पहले वाले से सस्ता है। लेकिन शर्म की वजह से विशाल एक बार भी नए स्कूल का नाम नहीं बता रहे।
शिक्षकों की संस्था यूटा के अध्यक्ष राजेन्द्र राठौड़ का कहना है, “देश के सरकारी प्राइमरी और जूनियर हाईस्कूल में करीब 9 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं। बीते साल 2020 से कोरोना-लॉकडाउन के चलते स्कूल पूरी तरह से बंद हो गए. सरकार ने ऑनलाइन पढ़ाई कराने का तरीका निकाला, लेकिन सरकारी प्राइमरी स्कूल में यह तरीका भी काम नहीं आया। वजह थी मोबाइल.।देशभर में करीब 9 करोड़ बच्चे सरकारी प्राइमरी और जूनियर हाईस्कूल में आते हैं, लेकिन ऑनलाइन क्लास के लिए एंड्रॉइड मोबाइल पूरे 90 लाख बच्चों के पास भी नहीं है।
इस तरह के ज्यादातर स्कूल में गांव-देहात के बच्चे आते हैं। ऑनलाइन पढ़ाई करने के लिए बच्चों के घरों में मोबाइल नहीं है। ज्यादातर घरों में सिर्फ की-पैड वाला मोबाइल है। जिस घर में एंड्रॉइड मोबाइल है भी तो वो घर के बड़े इस्तेमाल करते हैं। काम के चलते वो बच्चों को 4-4 घंटे के लिए मोबाइल नहीं दे सकते।
टैक्सी चलाने वाले खोड़ा गांव, नोएडा के अकरम का कहना है, “एक टच वाला मोबाइल कम से कम 6 हजार रुपये का आता है, अब ऐसे हालात में बच्चों के लिए 6 हजार का मोबाइल कहां से लाएं। काम-धंधा आधा रह गया है, उसमे सिर्फ घर ही चला पा रहे हैं।
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