वृंदावन में लाला बाबू मंदिर की प्राणवान मूरत

वृंदावन:  मंदिर सिर्फ इमारत नहीं, बल्कि सुदूर प्रांतों से आई भक्ति की दो गाथा है जो युगों-युगों तक गाई जायेंगी । इन धरोहरों में धड़कने वाला रसिकों का हृदय आज भी राधे-राधे की माला फेरता है। लाला बाबू का मंदिर ऐसी ही अमूल्य निधि है। लाला बाबू की प्रगाढ़ भक्ति ने मंदिर के पत्थरों में तो प्राण घोले ही, इसमें विराजी कृष्ण चंद्रमा की मूरत को भी प्राणवान बना दिया । जानना चाहेंगे कैसे। तो साथ चलिए।
ब्रह्म कुंड-गोदा विहार मागे में लाला बाबू मंदिर के शिखर पुंज ध्यान आकृष्ट करते हैं। कला साधकों ने इन्हें बड़ी निष्ठा से गढ़ा है। बड़े घेरे में स्थित मंदिर का अद्भुत स्थापत्य है। चौदह कलियों पर खड़े शिखर उत्कृष्ट शिल्प के द्योतक है। इसके चारों ओर श्रीकृष्ण के विभिन्न अवतारों की मूर्तियां सुशोभित हैं। बाहर की दीवारों पर केलि करते राधा माधव की सुंदर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। पुष्पों से पत्थरों का श्रृंगार किया गया है। जगमोहन के विशाल मोटे खंभे इसे अन्य मंदिरों से अलग बनाते हैं। प्रांगण में बैठी महिलाओं का संकीर्तन संपूर्ण वातावरण में पावनता घोल रहा है। गर्भगृह में कृष्ण चंद्रमा और राधा रानी की नयनाभिराम झांकी है। इन विग्रहों के फोटों खींचना मना है। मंदिर में गौड़ीय संप्रदाय अनुसार पूजा होती है। पांच आरती, पांच भोग की सेवा है।
लाला बाबू का मंदिर वृंदावन के नवनिर्मित मंदिरों में सबसे पुराना है। इसका निर्माण कृष्णचंद्र सिंह (लाला बाबू) ने सन् 1810 में कराया था। मंदिर और मूर्ति की कलात्मकता अनुपम है। मंदिर बन जाने के बाद लाला बाबू ने विधि विधान से ठाकुर जी की प्राण प्रतिष्ठा कराई लेकिन उनकी सांस नहीं चली। भक्त का मन नहीं भरा। दूसरी बार प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन किया और विग्रह के वक्षस्थल पर हाथ रखकर धुकधुकी का अनुभव किया। तब जाकर लाला बाबू को संतोष हुआ।
कोलकाता के धनी जमींदार परिवार में जन्मे कृष्णचंद्र सिंह को घरवाले प्यार से लालबाबू कहते थे । एक दिन नदी किनारे टहलते समय लाला बाबू ने मांझी के ये शब्द सुने दिन गेलो पार चल, अर्थात दिन निकल चला, उस पार चलो। इस पंक्ति ने उनके मन में विरक्ति जगा दी और ठाकुर के निज धाम में आ बसे। गोवर्धन के सिद्ध बाबा श्रीकृष्णदास से दीक्षा ली । वृंदावन में अन्न, वस्त्रादि से ब्रजवासियों की सेवा करते। लाला बाबू के मंदिर और रंग जी मंदिर के कुछ भूमि भाग के अधिकार पर लाला बाबू और सेठ लक्ष्मीचंद का मुकदमा चल रहा था। झगड़े की बात पता चलने पर गुरु जी ने लाला बाबू को फटकार कर कहा, अभी तुम्हारा अभिमान नहीं गया। वैष्णवों को तृण से भी अधिक लघु व तरू से भी अधिक सहिष्णु होना चाहिए। जब तक तुम सेठ लक्ष्मीचंद के यहां भिक्षा मांगने नहीं जाओगे, तब तक तुम्हारा ब्रजवास व्यर्थ है। अगले दिन सुबह लाला बाबू सेठ लक्ष्मीचंद की हवेली में भिक्षा लेने पहुंचे। उन्हें भिक्षा याचना करते देख सेठ जी का हृदय गदगद हो गया। उन्होंने कहा, लाला बाबू आपने हमें यहां तो जीता ही, वहां भी जीत लिया। आप धन्य हैं। गोवर्धन वास के दौरान घोड़े की लात लगने से लाला बाबू की नश्वर देह ब्रज रज में लीन हो गई। मंदिर के बाहर उस महात्मा की समाधि है।

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