लोकसभा चुनाव: तो इस वजह से यादवलैंड में खिला कमल

नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव 2019 में उत्तर प्रदेश में गठबंधन को वो सफलता नहीं मिल सकी जिसकी उम्मीद थी. 50 से ज्यादा सीटें जीतने का ख्वाब धराशायी हो गया। साथ ही यादवलैंड कही जाने वाली लोकसभा सीटें कन्नौज, फिरोजाबाद, एटा, इटावा और बदायूं में समाजवादी पार्टी (सपा) को बीजेपी के हाथों करारी हार मिली. इस बार भी सपा महज पांच सीटें ही जीत सकी, जबकि यादव परिवार के तीन सदस्यों को हार का सामना करना पड़ा. इनमें सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव, दो चचेरे भाई अक्षय यादव और धर्मेंद्र यादव भी शामिल हैं.

इसके अलावा अगर अखिलेश यादव की आजमगढ़ से जीत को छोड़ दिया जाए तो मुलायम की जीत भी फीकी ही रही. मैनपुरी से चुनाव जीतने वाले मुलायम की रिकॉर्ड मतों से जीत का दावा किया जा रहा था, लेकिन वो 94389 वोटों से ही जीत हासिल कर सके. ये तब हुआ जब इस बार सपा और बसपा गठबंधन कर साथ चुनाव लड़ रहे थे. यादवलैंड में कमल खिलने और मुलायम परिवार की हार की कई वजहें हैं, जिनमें ये तीन वजह प्रमुख हैं.

शिवपाल यादव की बगावत
यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी पर एकाधिकार को लेकर छिड़ी जंग और यादव कुनबे की महाभारत में भले ही अखिलेश यादव विजयी रहे हों, लेकिन उन्हें शिवपाल यादव की नाराजगी लगातार दो चुनावों में भारी पड़ी है. 2017 के विधानसभा चुनाव में शिवपाल को दरकिनार कर अकेले फैसला लेने वाले अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और नारा दिया यूपी के लड़कों का साथ. लेकिन चुनाव परिणाम उल्टा आया. सपा पचास का आंकड़ा भी पार नहीं कर सकी. इस बार के लोकसभा चुनाव में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बनाकर मैदान में कूदे शिवपाल ने यादव बेल्ट में सपा को अच्छा ख़ासा नुकसान पहुंचाया. वह खुद तो फिरोजाबाद से हार गए, लेकिन सपा के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव को हराने में अहम भूमिका निभाई.

प्रसपा के प्रवक्ता दीपक मिश्रा कहते हैं कि समाजवादी पार्टी उसी दिन अपनी विचारधारा से अलग हो गई जब उसने शिवपाल यादव को पार्टी से दरकिनार कर दिया. यह हार ऐतिहासिक है. यह अखिलेश यादव की विफलता है. पार्टी का काडर निराश हुआ. शिवपाल की संगठन में पकड़ थी, उनके जाने से संगठन कमजोर हुआ.

बसपा का संदेश यादव परिवार उनके बिना नहीं जीत सकता
सपा की हार की प्रमुख वजह यह भी रही कि जिन वोटों का ट्रांसफर गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में देखने को मिला वह लोकसभा चुनाव में देखने को नहीं मिला. अगर ऐसा होता तो यादवलैंड में कमल नहीं खिलता. मैनपुरी में मायावती खुद सभा करने पहुंचीं और 25 साल पुराने गेस्ट हाउसकांड को भुलाकर आपसी सद्भाव का भी खूब संदेश दिया. मुलायम ने खुद कहा कि यह उनका आखिरी चुनाव है. वह जीत तो गए, लेकिन जीत का अंतर सपा के लिए उत्साहित करने वाला नहीं है.

अखिलेश यादव का तीसरा फैसला जो नाकाम रहा

वरिष्ठ पत्रकार और यूपी की सियासत को नजदीक से देखने वाले रतनमणि लाल कहते हैं, “अब अखिलेश यादव के नेतृत्व पर सवाल उठेंगे. भले ही यह मीडिया के सामने न आए. ये तीसरा फैसला था अखिलेश यादव को जो सफल नहीं हुआ. पहला था शिवपाल यादव को बाहर कर सपा की कमान खुद के हाथ में लेना. परिवार में अनबन का नुकसान भी देखने को मिला. दूसरा फैसला था कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ना और तीसरा फैसला बसपा के साथ गठबंधन करना. इस बार तो यादव परिवार के ही तीन सदस्य हार गए. लिहाजा उनके नेतृत्व पर भी विश्लेषण होना तय है.”

बसपा रही फायदे में
रतनमणि लाल कहते हैं कि गठबंधन के बावजूद सपा को पांच सीटें मिलीं. जबकि सबसे ज्यादा फायदा बसपा को हुआ. उसका एक भी सांसद नहीं था, लेकिन उसे 10 सीटें मिली. उन्होंने कहा कि गठबंधन द्वारा जीती गई सीटों पर नजर डालें तो बसपा का जो वोट बैंक था वह मुस्लिम बहुल सीटों और सुरक्षित सीटों पर ट्रांसफर होता दिखा. मसलन रामपुर, संभल, मुरादाबाद, सहारनपुर, गाजीपुर, मऊ, जौनपुर, लालगंज और आजमगढ़. लेकिन अन्य जगह नहीं. जहां भी वे जीते वहां गठबंधन का जातिगत समीकरण काम करता दिखा. लेकिन उसी के विपरीत उन्हीं कास्ट के लोग हार गए जहां, उनका वर्चस्व था. अगर वहां मतों का ट्रांसफर होता तो बीजेपी न जीत पाती. मसलन कन्नौज, फिरोजाबाद, एटा, इटावा और बदायूं. मैनपुरी में भी वैसी जीत नहीं मिली, जैसी उम्मीद थी. जबकि यादव परिवार ने यहां मायावती के पैर भी छुए थे. इसका मतलब है कि बसपा के कोर वोटर ने उस हद तक सपा का समर्थन नहीं किया जितनी उसे उम्मीद थी.

उनका कहना था कि अब ये बात कोई कहे या न कहे लेकिन मायावती के काडर ने यह संदेश दे दिया कि उनके बिना यादव परिवार नहीं जीत सकता.

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