
यूनिक समय, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक श्रीलंका के नागरिक की शरण संबंधी याचिका को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि भारत हर विदेशी शरणार्थी को शरण देने के लिए बाध्य नहीं है। अदालत ने टिप्पणी की कि “भारत कोई धर्मशाला नहीं है जहां दुनिया भर से आए लोग बस सकें,” यह कहते हुए याचिकाकर्ता की अपील को अस्वीकार कर दिया।
यह मामला एक श्रीलंकाई नागरिक से जुड़ा है, जिसे 2015 में प्रतिबंधित आतंकी संगठन लिट्टे (LTTE) से जुड़े होने के संदेह में गिरफ्तार किया गया था। बाद में उसे गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत दोषी ठहराया गया और ट्रायल कोर्ट ने 10 साल की सजा सुनाई। 2022 में मद्रास हाईकोर्ट ने उसकी सजा घटाकर 7 साल कर दी और रिहाई के बाद उसे निर्वासन से पहले एक शरणार्थी शिविर में रहने का आदेश दिया गया।
याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि वह वैध वीजा पर भारत आया था और श्रीलंका में उसकी जान को खतरा है। उसका कहना था कि उसकी पत्नी और बच्चे भारत में रह रहे हैं और वह लगभग तीन वर्षों से हिरासत में है, लेकिन अब तक निर्वासन की कोई प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है।
इस पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने याचिका को खारिज कर दिया।
याचिकाकर्ता के वकील ने संविधान के अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 19 का हवाला दिया। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 19 केवल भारतीय नागरिकों पर लागू होता है और याचिकाकर्ता को कानून के अनुसार हिरासत में लिया गया है, इसलिए यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं है।
अंततः अदालत ने सुझाव दिया कि याचिकाकर्ता यदि अपने देश में सुरक्षित नहीं है, तो वह किसी अन्य देश में शरण का प्रयास कर सकता है।
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