हिंदी पट्टी से जुड़े दल सामाजिक न्याय की राजनीति के बहाने आरक्षण से जुड़े सवालों को उठाते रहे हैं। आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस सामाजिक न्याय की राजनीति पर खुलकर सामने आई है। उसे लगता है कि वह इसी मुद्दे के सहारे हिंदी पट्टी में अपना पुराना आधार खड़ा कर सकती है।
क्या भारत में जाति की राजनीति भविष्य में अपने नए स्वरूप में दिखेगी? यह राजनीति परंपरागत सामाजिक न्याय से जुड़ी जाति तक फिर से सीमित रहेगी या नई अवधारणा के साथ सामने आएगी? 2024 का लोकसभा चुनाव इस अहम सवाल का जवाब देगा। विपक्ष परंपरागत सामाजिक न्याय की राजनीति के सहारे मोदी सरकार को जातियों की जंग में उलझाना चाह रहा है, तो जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परंपरागत जातियों से इतर गरीब, महिला, युवा और किसान को ही देश की मुख्य चार जातियां बताकर नई अवधारणा गढ़ दी।
बिहार में जबसे जातीय गणना के आंकड़े जारी हुए हैं, जाति की सियासत तेज हो गई है। कांग्रेस समेत विपक्ष की दूसरी पार्टियां जातियों के हिसाब से हिस्सेदारी की मांग कर रही हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी हर रैली में यह मुद्दा उठा रहे हैं। सत्ता में आने पर जाति-जनगणना कराने का वादा भी कर रहे हैं। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गरीबों को देश की सबसे बड़ी जाति बताते हुए उन्हीं की सबसे ज्यादा हिस्सेदारी की बात कही है।
बहरहाल, जाति की राजनीति का केंद्र माने जाने वाले उत्तर प्रदेश, बिहार समेत हिंदी पट्टी के राज्यों में भाजपा अपने सहयोगियों के साथ बड़ी जीत हासिल करती है, तो परंपरागत सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों और पहली बार इस राजनीति को अंगीकार करने वाली कांग्रेस की मुसीबतें और चुनौतियां बढ़ जाएंगी।
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