वृंदावन विपिन के मंदिर निराले हैं। इनकी दीवारों में सैकड़ों बरसों का इतिहास बोलता है और माधुर्यमयी लीलाएं मुस्काती हैं। दोनों की ऐसी जुगलबंदी जुगल किशोर के निकेतन में ही हो सकती है। आप इन लीलाओं को मानों या ना मानों लेकिन ये देवालय इनके बिना प्राण विहीन हैं और इनसे जुड़ा साहित्य भी। वनखंडी चौराहे पर एक कोने में पीसीमां के निताई गौर का मंदिर है। छोटे से घरनुमा मंदिर में वात्सल्य का अथाह सागर समाया है। पीसीमां बच्चों की तरह निताई-गौर से लाड़ लड़ाती थीं और वो दोनों भी कम नटखट नहीं। रोज कुछ न कुछ शरारत करते रहते। किसी ने इन्हें रबड़ी क्या खिलाई, अपने सारे आभूषण उसे दे दिए। पीसीमां का आंचल पकड़कर बंगाल से यहां ले आए। उनकी लीलाओं को सुन हृदय आनंद विभोर हो जाता है। पीसीमां के प्रेम से आज भी यहां का कोना-कोना महका है। गर्भगृह में विराजे निताइ-गौर जैसे अब भी पुकार रहे हैं, पीसीमां
चैतन्य महाप्रभु को गौरव नित्यानंद को निताई कहा जाता है। मंदिर में मुरारी गुप्त द्वारा सेवित निताई गौर के दारु (काष्ठ) विग्रह हैं। साथ में श्यामा श्याम की सुंदर मूर्तियां भी विराजमान हैं। मंदिर से जुड़ी दीपा गोस्वामी किसी संप्रदाय नहीं बल्कि भाव से इन विग्रहों की सेवा-पूजा करती हैं। मंदिर में पीसीमां की पुष्प समाधि है।
पीसीमां की समाधि
चैतन्य महाप्रभु राधामिलित स्वयं श्रीकृष्ण हैं व नित्यानंद अनंगमंजरी-मिलित बलराम। गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की प्रसिद्ध रचना वैष्णव-वंदना में मुरारी गुप्त को राम भक्त हनुमान का अवतार क गया है। बंगाल में बुआ को पीसीमां कहा जाता है।
गौर परिकर मुरारी गुप्त नवद्वीप में चैतन्य महाप्रभु के मोहल्ले में रहते थे गौरी के स्वप्नादेश पर मुरारी गुप्त नवद्वीप के बोरोकोना घाट से इन श्री विग्रहों को लेकर आए और सेवा आरंभ की। धाम गमन से पूर्व मुरारी गुप्त इन विग्रहों को अपने भतीजों को सौंप गए। उसी वंश परंपरा में राढ़देश स्थित सिउड़ी जिले के सरकार रायपुर गांव में विग्रह विराजमान थे। एक बार मलेरिया की चपेट में आने की वजह से सारा गांव खत्म हो गया। ये विग्रह मिट्टी में दब गए। एक दिन आसपास से यहां गाय चराने आए क्षेपा नामक ग्वाले ने देखा कि एक गाय एक विशेष स्थान को अपने दूध से सींच रही है। खोदाई करने पर सभी विग्रह प्रकट हुए। ग्वाला इन्हें लेकर सिउड़ी आया और धूमधाम से अभिषेक किया। उसी समय श्री श्यामानंद परिवार के महात्मा बलराम दास तीर्थाटन करते वहां आए। निताई-गौर ने उन्हें स्वप्न देकर कहा, मेरी सेवा संभालो। बलराम दास ने आज्ञा का पालन किया और मंदिर में रहने लगे। इन्हीं दिनों ऊला गांव की एक विधवा चंद्रशशी देवी सिउड़ी आईं। मंदिर के निकट रहते हुए नित्य निताई गौर के दर्शन करती और खीर का भोग लगातीं। चंद्रशशी गांव लौटने की तैयारी कर रही थीं। उसी रात स्वप्न देखा, निताई गौर उनका आंचल पकड़कर कह रहे हैं, मां हमें छोड़कर मत जाना। तू चली जाएगी तो हमें खाना कौन देगा। चंद्रशशी उन्हें समझाती हैं, अपना आंचल छुड़ाती हैं। खींचतान में आंचल का एक टुकड़ा निताई गौर के हाथों में आ जाता है। स्वप्न भंग होते ही चंद्रशशी दौड़ी हुई मंदिर पहुंची तो देखा साड़ी का फटा भाग निताई गौर के हाथों में था। ठाकुरों की कृपा से परम वैराग्य जागा और बाबा बलराम दास से दीक्षा लेकर वहीं रहने लगीं। निताई गौर ने मां से कहा, हमें वृंदावन ले चलो। सन् 1860-62 में बाबा बलराम दास और चंद्र शशी देवी अपने ठाकुरों को लेकर नौका द्वारा वृंदावन पहुंचे। जैसे ही नाव यमुना पुलिन से आकर लगी, उसमें विराजमान श्री विग्रहों को देखकर वृंदावन की एक बुआ-भतीजा (कुत्ता और मेनका) उन सबको वनखंडी स्थित अपने नवनिर्मित घर ले आईं जहां वर्तमान में वे विराजमान हैं। बंगाल की रहने वाली भक्ता को मोहल्ले के लोग भी पीसीमां करते थे। भक्त ने चंद्रशशी को अपनी दीदी बना लिया तो वे सभा सबकी पीसी मां हो गईं।चंद्रशशी को अपनी
लीलाएं
अपने लिए भोग व अन्य चीजें निताई गौर खुद ही लेते | वृंदावन दर्शन को आई सेरपुर बगुड़ा की महिला के पास चिड़िया कुंज में रही। दोनों उसके पास पह बोले, हमारे पांवों में कीचड़ लगी है, हमें खड़ाऊ दो पीसीमां के लड़के हैं। महिला मंदिर गई और विग्रहों पुलकित हो गई। उसने इनके लिए चांदी के खड़ाऊ ब नित्य लीला में प्रविष्ट होने से पहले पीसीमां ने गं प्रभु को निताई गौर का सेवा कार्य सौंप दिया था। भयंकर शीत में निताई गौर को सर्दी लग गई। वे मटन करने लगे। पीसीमां ने अपने आंचल से नासिकाएं पौंछी तो सारा मंदिर उनकी श्लेष्मा से हो गया। उन्होंने बागेश्वर को कहा, तूने मेरे बच्चों जाड़े में ठंडे पानी से स्नान करा दिया। मां-बेटों
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