ब्रज भ्रमण निंबार्क कोट ने सहेजी है परंपराओं की निधि

बाहर से छोटे और साधारण दिखते निम्बार्क कोट में अंदर कदम रखते ही असाधारण अनुभूति होती है। सादगी के सौंदर्य की सुगंध सम्मोहित कर देती है। शांतिपूर्ण वातावरण में राधारमण लाल से साक्षात होने का सुखद सौभाग्य मिलता है। उनके अर्थों की त्रिभुवन मोहिनी मुस्कान पर मानुष सर्वस्व वार देता है। आंगन में प्राचीन परंपराओं की पौध लहलहाती है। यहीं निम्बार्क कोट की अमूल्य निधि है। इसलिए जब जब परंपरा और ब्रज संस्कृति की बात होती है, निम्बार्क कोट का स्मरण हो उठता है।

निंबार्क संप्रदाय के मंदिरों में निम्बार्क कोट का प्रमुख स्थान है। छिपी गली में स्थित इस मंदिर के गर्भगृह में राधारमण लाल व निम्बकाचार्य आद्य पंचायतन प्रतिष्ठित हैं। निंबार्क आचार्य वृंद जयंती उत्सव का यह एकमात्र केंद्र है। प्रतिवर्ष पूरे कार्तिक मास रासलीला, आचार्य-चरित्र, समाज, महावाणी पाठ व शोभायात्रा के साथ महोत्सव संपन्न होता है।

निम्बार्क कोट के सेवायत व विद्वान वृंदावन बिहारी जी कहते हैं कि “हमारे बाबा भगवतनारायण सिंह के ज्येष्ठ पुत्र स्वामी बाल गोविंददास जी बाबा हंसदास के शिष्य थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से वकालत करने वाले बाल गोविंददास जी सारा वैभव तज वृंदावन आ गए और भगवद भक्ति में लीन रहने लगे। बाबा के बड़े भाई हरिवंशनाराय सिंह ने सन् 1924 में निम्बार्क कोट की स्थापना की थी। हंसदास बाबा के गुरु गोपाल दास जी ने सन् 1843 में पुरानी कंज से कार्तिक उत्सव का शुभारंभ किया। हंसदास जी व उनके शिष्य बालगोविंद दास जी ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। आज तक यह उत्सव उसी रूप में निरंतर चल रहा है। समाज गायन और रासलीला इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।”

अद्वैत महाप्रभु की भजन स्थली

सेवाकुंज के पास सटी हुई गली में सीतानाथ अद्वैत प्रभु का प्राचीन मंदिर है। लगभग छह फुट ऊंची कुर्सी पर बने इस मंदिर का स्थापत्य बहुत सुंदर है। शिखर पर वृंदा देवी स्थापित हैं। गर्भगृह में राधा गोविंद, अद्वैत प्रभु के सेवित विग्रह मदन गोपाल, अद्वैतप्रभु व उनकी धर्मिणी सीतानाथ विराजमान हैं। मंदिर में प्राचीन लता-पताओं को सहेजा गया है। यहां अद्वैत महाप्रभु ने भजन किया है। सेवायत शचीनंदन दास के अनुसार “कलकत्ता के बरौदानंद गोस्वामी ने करीब 250 साल पहले इस मंदिर का निर्माण कराया था। गौड़ीय संप्रदाय से जुड़े इस मंदिर में सात आरती व चार भोग की सेवा है। यहां प्रतिदिन कीर्तन होता है।”

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