50 साल से बरकरार है अहमियत, शरद पवार के बिना अधूरी है यहा की राजनीति

शरद पवार की राजनीति की विशेषता शुरुआती दौर से ही सूझ-बूझ से भरी रही है. यही वजह रही कि साल 1967 में वो एमएलए चुने गए जब उनकी उम्र महज 27 साल थी.

नई दिल्‍ली. महाराष्ट्र की राजनीति में मराठा क्षत्रप शरद गोविंद राव पवार एक ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जिन्होंने पचास साल से लगातार राजनीति में अपनी अहमियत और महत्व को बरकरार रखा है. नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष हैं और राज्यसभा में पार्टी के नेता शरद पवार की शख्सियत इतनी बड़ी है कि महराष्ट्र की राजनीति उनके इर्द गिर्द घूमती ही है. चाहे वो सत्ता में हों या फिर उससे बाहर लेकिन पवार की पावर पॉलिटिक्स हर पार्टी समझती है.

लेकिन पवार सूबे की सियासत के साथ पवार क्रिकेट की सियासी पिच के भी धुरंधर हैं. मुंबई क्रिकेट काउंसिल के अध्यक्ष पद पर वो दस साल से भी ज्यादा समय तक बने रहे तो साल 2005 से 2008 तक भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और साल 2010 से 2012 तक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट काउंसिल के मुखिया भी रहे.

ऐसा रहा राजनीतिक सफर

पिछले पचास साल से लगातार प्रदेश की राजनीति में अंगद की तरह पैर जमाए शरद पवार राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर तीन बार शपथ ले चुके हैं. साल 2004 से लेकर 2014 तक वो मनमोहन सिंह की कैबिनेट में कृषि मंत्री रहे. इसके अलावा पवार केंद्र में रक्षा मंत्री के तौर पर भी काम कर चुके हैं. शरद पवार के राजनीतिक और व्यवहारिक आचरण की ही वजह से सत्ता पक्ष के साथ विपक्ष में उनके संबंध हमेशा अच्छे रहे. मौजूदा मोदी सरकार ने उन्हें साल 2017 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया है जो देश का दूसरा सबसे बड़ा सम्मानित सिविलियन पुरस्कार माना जाता है.

27 साल की उम्र में बने थे विधायक

शरद पवार की राजनीति की विशेषता शुरूआती दौर से ही सूझ-बूझ से भरी रही है. यही वजह रही कि साल 1967 में वो एमएलए चुने गए जब उनकी उम्र महज 27 साल थी. शरद पवार लगातार उसके बाद बुलंदियों को छूते रहे और तत्कालीन दिग्गज नेता यशवंत राव चव्वहाण उनके राजनीतिक संरक्षक के तौर पर उन्हें आगे बढ़ाते रहे.

शरद पवार का आत्म विश्वास इस कदर बढ़ चुका था कि इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी से बगावत कर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और साल 1978 में जनता पार्टी के साथ मिलकर महाराष्ट्र में सरकार का गठन किया और राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर पदभार ग्रहण किया. साल 1980 में इंदिरा सरकार की वापसी के बाद शरद पवार की सरकार बर्खास्त कर दी गई. लेकिन शरद पवार ने साल 1983 में कांग्रेस पार्टी सोशलिस्ट का गठन कर प्रदेश की राजनीति में अपनी मजबूत पकड़ बरकरार रखी.

उस साल हुए लोकसभा चुनाव में शरद पवार पहली बार बारामती से चुनाव जीते लेकिन साल 1985 में हुए विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मिली 54 सीटों पर जीत ने उन्हें वापस प्रदेश की राजनीति की ओर खींच लिया. शरद पवार ने लोकसभा से इस्तीफा देकर विधानसभा में विपक्ष का नेतृत्व किया लेकिन साल 1987 में वो वापस अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस में वापस आ गए और राजीव गांधी के नेतृत्व में आस्था जता कर उनके करीब हो गए. शरद पवार को साल 1988 में शंकर राव चव्हाण की जगह सीएम की कुर्सी मिली जबकि चव्हाण को साल 1988 में केन्द्र में वित्त मंत्री बनाया गया.

पीएम की रेस में था नाम

1990 के विधानसभा चुनाव में 288 सीटों में 141 पर कांग्रेस की जीत हो पाई थी लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी शरद पवार ने 12 निर्दलीय विधायक की मदद से सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की. ऐसा कर वो तीसरी बार सीएम बनने में कामयाब रहे. लेकिन साल 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद शरद पवार का नाम उन तीन लोगों में आने लगा जिन्हें कांग्रेस के अगले प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा था. इन तीन नामों में नारयण दत्त तिवारी, पी वी नरसिम्हा राव और शरद पवार शामिल थे.

नारायण दत्त तिवारी साल 1991 में हुए लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित हार की वजह से पीएम बनने से रह गए और ये मौका दूसरे सीनियर नेता पी वी नरसिम्हा राव को मिल गया जबकि शरद पवार को रक्षा मंत्रालय की जिम्मेदारी मिली. लेकिन बाद में एक बार फिर शरद पवार को महाराष्ट्र की राजनीति के लिए वापस भेजा गया.

6 मार्च 1993 को सुधाकर राव नाइक को हटा शरद पवार को सीएम बनाया गया गया. लेकिन 12 मार्च 1993 को मुंबई में हुए सीरियल ब्लास्ट की वजह से शरद पवार सरकार पर जमकर राजनीतिक हमले हुए. इसका खामियाज़ा पार्टी को विधानसभा चुनाव में भुगतना पड़ा. बीजेपी-शिवसेना ने मुंबई बम ब्लास्ट के मुद्दे पर पवार सरकार पर निशाना साधते हुए साल 1995 में हुए विधानसभा चुनाव को जीत लिया. कांग्रेस को केवल 80 सीटें मिलीं.

विपक्ष के नेता भी रहे

साल 1998 के मध्यावधि लोकसभा चुनाव के बाद शरद पवार विपक्ष के नेता चुने गए. लेकिन साल 1999 में जब 12 वीं लोकसभा भंग हुई तो शरद पवार, पी ए संगमा और तारिक अनवर ने विदेशी मूल के नेतृत्व के सवाल पर सोनिया गंधी पर सवाल उठाया और कांग्रेस से निष्कासन के बाद नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी का गठन किया. शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर पार्टी जरूर बनाई लेकिन साल 1999 के महाराष्ट्र के विधान सभा चुनाव में जनादेश न मिलने पर कांग्रेस से हाथ मिलाकर सरकार भी बना ली.

साल 2004 से साल 2014 तक पवार लगातार केन्द्र में मंत्री रहे तबसे लेकर अभी तक महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के साथ-साथ वहां के लोकसभा सीट पर कांग्रेस से तालमेल बनाए रखा. साल 2014 का लोकसभा चुनाव शरद पवार ने ये कहकर नहीं लड़ा कि वो युवा नेतृत्व को पार्टी में आगे लाना चाहते हैं.

विवादों से भी घिरे रहे हैं पवार

स्टांप घोटाला हो या फिर ज़मीन आवंटन विवाद या फिर अपराधियों को बचाने से लेकर भ्रष्ट अधिकारियों से सांठ गांठ. इन तमाम मुद्दों पर शरद पवार विपक्षियों द्वारा घेरे जाते रहे हैं. इतना ही नहीं मुबई में 1993 में हुए सीरियल ब्लास्ट और दाऊद के साथ उनके कथित रिश्तों को लेकर विपक्षी दलों द्वारा खूब छींटाकशी हुई है. पूर्व आएएस अधिकारी जी आर खैरनार द्वारा उनपर लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोप की वजह से साल 1993 में उनकी खूब किरकिरी हुई यही वजह है कि साल 1995 में पवार जीत का परचम लहराने में नाकामयाब रहे.

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पवार पर विपक्षी दल राजनीति में परिवारवाद को थोपने का आरोप लगाते हैं. उनकी पुत्री सुप्रिया सुले और भतीजे अजीत पवार का एनसीपी में उनके बाद की हैसियत रखने को लेकर शरद पवार हमेशा से आलोचना के शिकार रहे हैं. लेकिन शरद पवार शुरूआती समय से ही व्यवहारिक राजनीतिक चाल चलने के लिए जाने जाते रहे हैं.

राजनीति में सधे खिलाड़ी की तरह एक एक चाल सोझ समझकर चलने वाले शरद पवार आने वाले विधानसभा चुनाव में एनसीपी को मजबूत स्थिती में ला खड़ा कर पाएंगे इस पर निगाहें सबकी टिकी हैं. ज़ाहिर है उनको मोदी मैजिक के साथ युवा देवेंद्र फड़णवीस और उद्धव ठाकरे की जोड़ी का सामना करना होगा जिनके पास मजबूत संगठन के साथ साथ कई अनुभवी नेता भी हैं. ऐसे में क्रिकेट प्रेमी शरद पवार क्या तेंदुलकर की तरह अकेले दम पर पार्टी की नैया पार लगा पाएंगे ये सवाल राजनीतिक गलियारे में अक्सर सुना जा सकता है.

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