महाराष्ट्र का घटनाक्र्रम केवल एक राजनीतिक ड्रामा नहीं था बल्कि इस में इतिहास की भी झलक साफसाफ दिखी. अब सारे सूत्र उस वर्ग के हाथ में हैं जो सदियों से पंडापुरोहितवाद से त्रस्त है. उस वर्ग ने महाराष्ट्र में भाजपा के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा रोक लिया है.
‘अंत भला तो सब भला’ की तर्ज पर महाराष्ट्र का सियासी ड्रामा आखिरकार 28 नवंबर की शाम खत्म हुआ, जब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र के 18वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. लेकिन यह अंत एक ऐसा प्रारंभ ले कर भी आता दिख रहा है जिस का गहरा संबंध महाराष्ट्र के इतिहास, जातिगत लड़ाइयों और समाज के अलावा धर्म से भी है.
यह ड्रामा, दरअसल, इतिहास का दोहराव भी है और इस मिथक को भी तोड़ गया कि सत्ता हमेशा सवर्णों या ब्राह्मणों के हाथ में ही रहेगी और जैसा पंडेपुजारियों और पुरोहितों को पूजने वाले चाहेंगे, इस बार या हर बार वैसा ही होगा.
क्या था ड्रामा, क्या थे इस के माने और कैसे विपरीत विचारधारा वाले 3 दल शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने एकसाथ आ कर सब को चौंका दिया, इस सवाल का जवाब महाराष्ट्र के इतिहास से मिलता है.
छत्रपति शिवाजी को महाराष्ट्र के लोग भगवान की तरह पूजते हैं जिन से संबंधित यह तथ्य हर कोई जानता है कि वे हिंदू शासन की नींव रखने वाले पहले शासक थे जिन्होंने पहले मुगलों और फिर अंगरेजों के खिलाफ कई अहम युद्ध कर हिंदू समाज के सभी तबकों को एकजुट किया था.
लेकिन शासक होने के बाद भी वे तत्कालीन ब्राह्मणों की नजर में राजा नहीं थे क्योंकि ब्राह्मण उन्हें शूद्र मानते थे. तब समाज पर ब्राह्मणवादी ताकतों का दबदबा था और उन की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था. रूढि़यां, कुरीतियां, अंधविश्वास, जातिगत भेदभाव और शोषण चरम पर थे और खुद को ईश्वरीय दूत और पूजनीय बताने वाले ब्राह्मणों की हरदम, मुमकिन कोशिश इन्हें बनाए और बढ़ाए रखने की होती थी जो उन की रोजीरोटी थी और जातिगत तौर पर उन्हें दूसरों से श्रेष्ठ साबित भी करती थी.
महाराष्ट्र और शिवाजी में दिलचस्पी रखने वाले बेहतर जानते हैं कि वे पहले मराठा थे जिस ने मुगल शासक औरंगजेब को पराजित कर अपना एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था, लेकिन दिक्कत यह थी कि उन का विधिवत राज्याभिषेक नहीं हो पा रहा था. वह सिर्फ इसलिए कि ब्राह्मण उन्हें शूद्र या पिछड़ा, कुछ भी कह लें, मानते थे और यह बात शास्त्रसम्मत नहीं थी कि कोई छोटी जाति वाला राजा बने. अगर ऐसा हो जाता तो उन की दबंगई मिट्टी में मिल जाती.
समाज ब्राह्मणों का मुहताज था, इसलिए शिवाजी को हिंदू मान्यताओं व परंपराओं के मुताबिक राजा नहीं माना जा रहा था. ब्राह्मणों ने उन का राजतिलक करने से मना कर दिया था. शिवाजी बहादुर ही नहीं, बल्कि बुद्धिमान भी थे. सो, उन्होेंने ब्राह्मणों को ही हथियार बना कर खुद का राज्याभिषेक उन्हीं से करवा लिया. जातिवादी व्यवस्था से निकलने और तोड़ने का इस से कारगर व बेहतर रास्ता कोई और था भी नहीं.
शिवाजी ने काशी के जानेमाने पुरोहित गागाभट्ट को बुलावा भेजा जिन्होंने यह साबित कर दिया कि शिवाजी शूद्र या पिछड़े नहीं, बल्कि राजस्थान के सिसोदिया वंश के वंशज हैं जोकि एक क्षत्रिय जाति है. इस के बाद समारोहपूर्वक पूरे धूमधड़ाके से शिवाजी का राज्याभिषेक हो गया. ब्राह्मणों को इफरात से दानदक्षिणा मिल गई थी.
शिवाजी की जाति को ले कर विवाद आज भी होते रहते हैं. साल 2016 में सतारा के साहित्य सम्मेलन में एक दलित लेखिका प्रज्ञा पवार ने शिवाजी को शूद्र कहा था. तब खासा बवाल मचा था और प्रज्ञा को सम्मेलन बीच में छोड़ कर जाना पड़ा था. इसी तरह इसी साल जून में अभिनेत्री पायल रोहतगी ने भी शिवाजी की जाति पर टिप्पणी करते उन्हें शूद्र किसान परिवार का बताया था, तब भी बवंडर मचा था. इन पंक्तियों पर भी कुछ को आपत्ति हो सकती है पर इतिहास को अपनी मरजी से तोड़ामरोड़ा भी नहीं जा सकता.
इन और इस तरह के फसादों से जाहिर होता है कि जातिवाद अभी भी खत्म नहीं हुआ है. बात जहां तक शिवाजी की जाति की है, तो उस पर अब विवाद के कोई माने नहीं. वैसे इतिहासकार भी इस संवेदनशील मुद्दे पर दोफाड़ हैं. एक इतिहासकार प्रोफैसर अब्दुल कादिर मुकद्दस के मुताबिक, शिवाजी के दौर में मराठा प्रभुत्वशाली समुदाय था, लेकिन ज्यादातर लोग निजामशाही में काम करते थे. उन से पहले मराठा समुदाय में किसी ने राजा बनने की कोशिश नहीं की थी.
1857 के स्वाधीनता संग्राम और विनायक दामोदर सावरकर के इतिहास पर लिखने वाले प्रोफैसर शेषराव मोरे के मुताबिक, पहले वर्ण को व्यवसाय के तौर पर बांटा गया, पर बाद में 2 ही वर्ण माने गए. एक था ब्राह्मण और दूसरे तीनों को एक श्रेणी में शूद्र माना गया.
यही तो अब हुआ था
विवादों से परे एक बात शीशे की तरह साफ है कि ब्राह्मणवाद पहले भी शबाब पर था और आज के लोकतांत्रिक युग में भी है. फर्क इतनाभर आया है कि लोकतंत्र के चलते अब गैरब्राह्मणों की आवाज पहले की तरह कुचली नहीं जा सकती और न ही पहले की तरह उन्हें धर्मग्रंथों के आधार पर दबा कर रखा जा सकता है.
महाराष्ट्र का इतिहास ही नहीं बल्कि वर्तमान भी इस बात की पुष्टि करता है कि अब शिक्षित होते और मुख्यधारा में आते पिछड़ों की जागरूकता को आप चुनौती नहीं दे सकते, बल्कि उसे स्वीकार कर लेना ही एकमात्र विकल्प देश के आकाओं के पास बचा है.
24 अक्तूबर को जब महाराष्ट्र विधानसभा के नतीजे आए तो भाजपा शिवसेना गठबंधन ने 288 में से 161 सीटों पर जीत हासिल की. भाजपा को 105 और शिवसेना को 56 सीटें मिलीं. एनसीपी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटें मिलीं.
उम्मीद की जा रही थी कि भाजपा व शिवसेना का गठबंधन सरकार बना लेगा, लेकिन विवाद उस वक्त उठ खड़ा हुआ जब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने साफ कर दिया कि गठबंधन के 50-50 के फार्मूले के तहत मुख्यमंत्री शिवसेना का होगा. इधर भाजपा उस के ब्राह्मण चेहरे देवेंद्र फडणवीस के नाम पर अड़ गई थी कि मुख्यमंत्री वही होंगे और उस ने ऐसा कोई वादा नहीं किया था जैसा कि उद्धव ठाकरे कह रहे हैं.
इस विवाद को शुरू में मराठा राजनीति के सर्वमान्य चेहरे और एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने खामोशी से देखा व सम झा. मीडिया के पूछने पर बारबार वे यही कहते रहे कि उन्हें विपक्ष में बैठने का आदेश जनता ने दिया, इसलिए वे विपक्ष में बैठेंगे.
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अब तक बेफिक्र थे जो बाद में उन की बड़ी गलतफहमी, जिसे नादानी कहना ज्यादा ठीक होगा, साबित हुई कि उद्धव ठाकरे भाजपा के बगैर सरकार नहीं बना पाएंगे, कुछ दिनों में ही उन की ठसक निकल जाएगी और फिर वे उन की शरण में आ जाएंगे. चाणक्य और सरकार बनाने व गिराने के पंडित माने जाने वाले अमित शाह को उस वक्त झटका लगा जब शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के साथ आ कर सरकार बनाने की चर्चा शुरू हुई.
शिवसेना पर उस के जन्म से ही कट्टर हिंदूवादी होने का ठप्पा लगा है. लिहाजा, यह बात किसी के भी गले नहीं उतर रही थी कि ऐसा भी हो सकता है. बिलाशक, यह पूरब और पश्चिम के मिलने जैसी बात थी. मामला अधर में लटका रहा. भाजपा और उद्धव ठाकरे दोनों अपनीअपनी जिद पर अड़े रहे.
भाजपा की तरफ से यह दावा किया जाता रहा कि वह ही सरकार बनाएगी और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ही होंगे. इसी तरह उद्धव ठाकरे भी अड़ गए थे कि चाहे कुछ भी हो जाए, मुख्यमंत्री तो कोई शिवसैनिक ही होगा.
यों बिगड़ी बात
बात एक नवंबर से तब बिगड़ी थी जब शिवसेना सांसद संजय राउत ने यह कहा कि शिवसेना अपने दम पर सरकार बना लेगी. इस के पहले शिवसेना भाजपा की वह पेशकश ठुकरा चुकी थी कि उसे उपमुख्यमंत्री पद दे दिया जाएगा.
2 नवंबर को महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि देशभर में हलचल हुई जब उद्धव ठाकरे ने फोन पर शरद पवार से बात की. फिर दूसरे ही दिन 3 नवंबर को संजय राउत ने यह दावा कर डाला कि उन के पास 170 विधायकों का समर्थन है. इस बयान को गंभीरता से लिया जाता, इस के पहले ही शरद पवार ने यह बयान दे डाला कि जिन के पास संख्या बल है उन्हें ही सरकार बनानी चाहिए.
यहीं से शरद पवार की भूमिका शक के दायरे में आने लगी कि आखिर वे चाहते क्या हैं. राजनीतिक विश्लेषकों ने उन्हें चाणक्य, चालबाज और खिलाड़ी कहना शुरू कर दिया. 5 नवंबर को शिवसैनिकों ने मुंबई में उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने के पोस्टर लगा दिए. यह बात, हालांकि 24 अक्तूबर से ही कही जा रही थी इसलिए लोगों ने सम झा यही कि पुत्रमोह उद्धव की जिद की वजह है.
6 नवंबर को शरद पवार ने फिर से पलटी मारते यह बयान दे डाला कि हम विपक्ष में बैठेंगे, जनता ने भाजपा व शिवसेना को सरकार बनाने का जनादेश दिया है.
बिलाशक, शरद पवार सियासी चालें ही चल रहे थे जिन का मकसद यह नापातोली करना भी था कि उद्धव ठाकरे वाकई गंभीर हैं या फिर भाजपा को हड़काने के लिए उन के नाम का इस्तेमाल कर रहे हैं. यानी, वे शिवसेना प्रमुख को ठोकबजा कर परख रहे थे और उकसाने के साथ तरसा भी रहे थे. तजरबेकार और सयाने इस नेता की यह आशंका अपनी जगह ठीक थी कि कहीं उद्धव ठाकरे हिंदुत्व के नाम पर जज्बाती हो कर भाजपा की बात न मान लें या फिर भाजपा ही उन्हें रोकने के लिए उद्धव ठाकरे की मांग न मान ले.
खेल अब किसी जासूसी उपन्यास जैसा दिलचस्प और सस्पैंसभरा हो चला था क्योंकि 8 नवंबर को सरकार का कार्यकाल खत्म हो रहा था. उस दिन तक आम लोग यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि उद्धव ठाकरे कोई और रास्ता न निकलते देख भाजपा की बात मान लेंगे और गठबंधन दूसरी बार सरकार बना लेगा.
7 नवंबर को संजय राउत ने यह कहते इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया कि भाजपा को ऐलान कर देना चाहिए कि वह सरकार बनाने में सक्षम नहीं है. सदन में पता चल जाएगा कि हमारे पास क्या आंकड़े हैं.
8 नवंबर को देवेंद्र फडणवीस ने मन मारते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया तो तसवीर साफ हो गई कि शिवसेना-भाजपा गठबंधन सरकार नहीं बना रहा है. संवैधानिक औपचारिकता निभाते हुए राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने बहैसियत सब से बड़ा दल भाजपा को सरकार बनाने का आमंत्रण दिया.
भाजपा ने सरकार बनाने से इनकार कर दिया. इस के बाद राज्यपाल ने शिवसेना और एनसीपी को भी सरकार बनाने का न्योता बारीबारी से दिया. लेकिन, चूंकि 144 का आंकड़ा किसी के पास नहीं था, इसलिए सभी ने सरकार बनाने में असमर्थता जाहिर कर दी. 12 नवंबर को उम्मीद के मुताबिक राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.
फिर यों बनी बात
अनिश्चितता का माहौल और गहरा हो उठा लेकिन भीतर ही भीतर एक नया विचार और गठबंधन लगभग आकार ले चुका था. 15 नवंबर को पहली बार यह बात सामने आई कि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस मिल कर सरकार बनाएंगे और इस बाबत फार्मूला तैयार हो चुका है कि मुख्यमंत्री शिवसेना का ही होगा.
?लेकिन शरद पवार अभी भी पूरी तरह निश्ंिचत और आश्वस्त नहीं थे. लिहाजा, उन्होंने शिवसेना से एनडीए से अलग होने को कहा तो किसी भी कीमत पर सरकार बनाने की जिद लिए बैठे उद्धव ठाकरे ने उन की यह बात भी मान ली. 16 नवंबर को संजय राउत ने घोषणा कर डाली कि अब सरकार बनाने की औपचारिकताएं ही शेष रह गई हैं.
अब तक की उठापटक में कांग्रेस की भूमिका एक तटस्थ दर्शक की सी थी. लेकिन गठबंधन के आकार लेते ही वह सक्रिय हो गई. यह वह वक्त था जब शरद पवार उद्धव ठाकरे को ले कर पूरी तरह निश्ंिचत और आश्वस्त हो चुके थे. लेकिन वे यह भी सम झ रहे थे कि भाजपा इतनी आसानी से हार मानने वाली नहीं. लिहाजा, वे भागेभागे सोनिया गांधी के पास पहुंचे. अब गेंद सोनिया गांधी के पाले में थी. महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार बनाने की उन्होंने इजाजत या सहमति, कुछ भी कह लें, दे दी तो बात आगे बढ़ी. पर तमाम चर्चाएं हां और न के बीच लटकी रहीं या शरद पवार ने जानबू झ कर लटकाए रखी, एक ही बात है.
इसी बीच, शरद पवार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दिल्ली में मिले तो सस्पैंस और गहरा उठा. सारे देश ने एक स्वर में स्वीकारा कि शरद पवार 2 तरफ खेल रहे हैं और वे कभी भी भाजपा को समर्थन दे कर उस के साथ सरकार बना सकते हैं.
हालांकि अब तक गठबंधन सरकार के तमाम फार्मूले तैयार हो चुके थे लेकिन इस मुलाकात ने शरद पवार को फिर कठघरे में ला खड़ा कर दिया. इस में कोई शक नहीं कि शरद पवार नरेंद्र मोदी के पास मौसम का मिजाज पूछने नहीं गए होंगे. इस बात में दम है कि वे अपनी बेटी सुप्रिया सुले को केंद्र में मंत्री पद दिलाना चाहते थे जिस से उन के भतीजे अजित पवार महाराष्ट्र की राजनीति संभाले रहें और परिवार में फूट न पड़े.
भगवा खेमे ने तो प्रचार भी शुरू कर दिया कि भाजपा ही सरकार बनाएगी और एनसीपी उस का हिस्सा होगी. लेकिन 22 नवंबर को फिर सभी को चौंकाते हुए शरद पवार ने शिवसेना और कांग्रेस के नेताओं के साथ मीटिंग कर सरकार के गठन का खाका खींचने का ऐलान भी कर दिया कि सारी बातें तय हो चुकी हैं और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ही होंगे.
तय यह हुआ कि 23 नवंबर को तीनों दलों के नेता राज्यपाल के पास जा कर सरकार बनाने का दावा पेश करेंगे लेकिन 23 नवंबर की ही सुबह उस वक्त न केवल मुंबई और महाराष्ट्र बल्कि पूरे देश में सनाका खिंच गया जब अलस्सुबह लोगों को मालूम हुआ कि देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री और शरद पवार के भतीजे व एनसीपी विधायक दल के नेता अजित पवार को राज्यपाल ने उपमुख्यंत्री पद की शपथ दिला कर उन्हें 30 नवंबर तक बहुमत सिद्ध करने का समय दिया है.
चोरीचोरी चुपकेचुपके
यह देश के लोकतंत्र का बेहद शर्मनाक नजारा और काला दिन था जिस में संविधान की धज्जियां खुलेआम पूरी बेशर्मी से उड़ाई गईं. बहुमत न होने पर भी देवेंद्र फडणवीस द्वारा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने पर भाजपा की खूब छीछालेदर हुई. एक बार फिर भक्तों ने मोदीशाह की जोड़ी को सरकार बनाने का वैद्यहकीम कह कर प्रचारित किया.
इस रात किसी दुश्मन देश ने सीमा पार से हमला नहीं किया था और न ही देश के अंदर कहीं आतंकियों ने बम फोड़े थे, बल्कि आधी रात को राज्यपाल ने राष्ट्रपति से महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन हटाने के लिए पत्र लिखा और देररात ‘जाग’ रहे राष्ट्रपति ने इसे तड़के मंजूरी भी दे दी और सुबह गुपचुप तरीके से शपथ भी हो गई. यह जान कर महसूस हुआ कि शायद हालात इमरजैंसी से भी बदतर हो गए हैं और सत्तारूढ़ भाजपा मनमानी व तानाशाही पर उतारू हो आई है.
अजित पवार ने क्यों भाजपा से हाथ मिलाया, यह राज शायद ही कभी उजागर हो लेकिन आफत फिर से शरद पवार की आ गई जिन पर तरहतरह की उंगलियां उठने लगी थीं. शरद पवार ने सफाई दी लेकिन उन पर सिवा उद्धव ठाकरे के किसी ने यकीन नहीं किया. निस्संदेह इस भीषण वक्त में भी उद्धव ने पर्याप्त सम झदारी और धैर्य का परिचय दिया.
बाजी फिल्मी स्टाइल में एक बार फिर पलट गई और हर किसी ने मान लिया कि अब भाजपा बहुमत साबित कर देगी क्योंकि एनसीपी में नंबर 2 की हैसियत रखने वाले अजित पवार कम से कम 15-20 विधायकों को तो फोड़ ही ले जाएंगे. बाकी का इंतजाम भाजपा कर लेगी. बात में दम इस लिहाज से था कि अजित पवार भी 4 दशकों से जमीनी राजनीति कर रहे थे और शरद पवार उन पर आंख बंद कर भरोसा करते रहे थे. इतिहास इस तरह के छलप्रपंचों से भरा पड़ा है कि रातोंरात पारिवारिक षड्यंत्र रचे गए और सत्ता बदल गई.
शिवसेना ने संभाला मोरचा
इस में शक नहीं कि राज्य महाराष्ट्र न होता और सामने शिवसेना नहीं होती तो अमित शाह अक्तूबर में ही भाजपा सरकार बनवा चुके होते. ठीक वैसे ही जैसे कभी कर्नाटक, गोवा और मणिपुर में बनाई थी.
एक बार फिर तीनों दलों की मीटिंग हुई जिस में सभी ने विकट की द्यएकजुटता दिखाई. तीनों दलों ने अपनेअपने विधायकों को मैनेज किया जिस से भाजपा के इस मंसूबे पर पानी फेरा जा सके कि सत्ता के लालच में विधायक उस की तरफ खिंचे चले आएंगे. विधायकों को ऐसे नाजुक मौकों की परंपरा के मुताबिक होटलों में नजरबंद कर रखा गया. शिवसैनिकों ने भाजपा को किसी भी दल के विधायक के पास फटकने नहीं दिया.
कांग्रेस, शिवसेना और एनसीपी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो उन्हें न्याय और राहत दोनों मिले. सुप्रीम कोर्ट ने देवेंद्र फडणवीस को बहुमत साबित करने के लिए 28 नवंबर का वक्त दिया लेकिन नाटकीय तरीके से उन्होंने 27 नवंबर को ही इस्तीफा दे दिया. उन के पहले अजित पवार ने भी राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया था.
इस से साबित हो गया कि भाजपा अंधेरे में तीर चला रही थी लेकिन साबित यह भी हुआ कि उद्धव ठाकरे और शिवसेना के जमीनी खौफ और बाहुबल के आगे उस की एक न चली. एक भी विधायक इधर से उधर भाजपा नहीं कर पाई तो यह उद्धव की फुरती थी और उन का मकसद भी था.
देवेंद्र फडणवीस के इस्तीफे के पहले दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और कार्यकारी अध्यक्ष जे पी नड्डा ने मीटिंग की और यह तय किया था कि तमाम चालें उलटी पड़ रही हैं. ऐसे में भलाई और सम झदारी इसी में है कि चुपचाप पांव वापस खींच लिए जाएं ताकि और जगहंसाई न हो.
अब ताबड़तोड़ तरीके से तीनों दलों ने एकजुटता व सम झदारी दिखाई और राज्यपाल के सामने सरकार बनाने का दावा पेश कर हारी हुई बाजी शानदार तरीके से जीत ली. जबकि तिलमिलाते भाजपाई महाराष्ट्र की सत्ता हाथ से जाते देखते रह गए.
देखते ही देखते माहौल बदला, रंगत बदली और लोगों के सोचने का नजरिया भी बदला कि क्यों नहीं शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस जैसी विपरीत विचारधारा वाली पार्टियां सरकार बना और चला सकतीं. महाविकास अघाड़ी बना और उस ने अपना न्यूनतम सा झा प्रोग्राम यानी एजेंडा भी जारी कर दिया जो धर्मकर्म की राजनीति से परहेज करता हुआ ही दिखाई दे रहा है. अघाड़ी मराठी शब्द है, इसे हिंदी में गठबंधन कहते हैं.
28 नवंबर की शाम मुंबई का शिवाजी पार्क गुलजार था जहां एक नई इबारत लिखी गई. स्टेज को जानबू झ कर शिवाजी के दरबार जैसा सजाया गया था और इस के पीछे एक मैसेज भी था.
शिवाजी, पिछड़े और लोकतंत्र
मैसेज यह था कि सही माने में देश में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की नींव शिवाजी ने ही रखी थी जिन के शासन में सभी वर्गों व धर्मों के लिए बराबर की जगह व महत्त्व मिला हुआ था.
ऊपर उन की जाति का जिक्र यह बताने के लिए किया गया है कि पंडेपुरोहितों को यह बरदाश्त नहीं हो रहा था कि कोई गैरब्राह्मण शासक बने. भाजपा ब्राह्मण देवेंद्र फडणवीस को थोपते यही कोशिश कर रही थी लेकिन लोकतंत्र में चूंकि राज्याभिषेक पुरोहित नहीं, बल्कि जनता करती है, इसलिए भाजपा मात खा गई.
इतिहास यह भी बताता है कि शिवाजी ने कभी पंडों के पांव नहीं धोए, कर्मकांड नहीं किए, धार्मिक पाखंड नहीं किए. इसलिए, ब्राह्मण उन्हें बहिष्कृत करते रहे. लेकिन जब उन्हें यथोचित दक्षिणा मिल गई तो उन्होंने शिवाजी को क्षत्रिय भी घोषित कर दिया.
सीधेसीधे कहा जाए तो उद्धव ठाकरे ने शरद पवार की मदद से बिना पंडों के अपना राज्याभिषेक करवा लिया है और इस में जागरूक होती पिछड़ी जाति वालों का खासा साथ और योगदान रहा है.
उद्धव ठाकरे ने खुद का तो लोकतांत्रिक अभिषेक कराने के साथ ही नरेंद्र मोदी के चक्रवर्ती सम्राट बनने के राजसूई यज्ञ का घोड़ा महाराष्ट्र में पकड़ उन की अधीनता स्वीकारने से मना कर दिया और उन्हें पराजित भी कर दिया.
चुनाव के पहले ही सभी दल पिछड़ों को साधने में जुट गए थे. खासतौर से शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने इस चुनाव में पिछड़ों की अहमियत सम झी थी और चुनाव के ठीक पहले वे धनगर, घुमंतु, कुनबी, बंजारा, तेली, माली और दूसरी पिछड़ी जाति के प्रतिनिधियों से मिले थे और उन्हें आश्वस्त किया था कि उन के स्वाभिमान और आत्मसम्मान का वे पूरा खयाल रखेंगे. ये वे जातियां हैं जो सदियों से ब्राह्मणों के शोषण और अत्याचारों का शिकार रही थीं. धर्मग्रंथ इन्हें शूद्र बताते थे, लेकिन लोकतंत्र में इन की गिनती पिछड़ों में की जाने लगी है.
उलट इस के, भाजपा इस मुगालते में रही कि उसे तो पिछड़े वर्ग के वोट महज इस आधार पर मिलेंगे कि नरेंद्र मोदी पिछड़ी जाति के हैं और नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभाओं में खुद के पिछड़ा होने की दुहाई दे कर भी वोट मांगे थे.
लेकिन हकीकत यह थी कि भाजपा के पास कोई वजनदार पिछड़ा नेता था ही नहीं. कभी भाजपा के लिए गोपीनाथ मुंडे ने पिछड़ों को पार्टी से जोड़ा था लेकिन उन के निधन के बाद उन की बेटी पंकजा मुंडे पिछड़े वर्ग को साध नहीं पाईं. भाजपा केवल एक ब्राह्मण चेहरे के सहारे लड़ी और उस ने एकनाथ खड़से और विनोद ताबड़े जैसे जमीनी पिछड़े नेताओं को हाशिए पर ला पटका था.
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इस बात को सम झ नहीं पाए कि पिछड़े अब जागरूक हो चुके हैं, इसलिए वे उन के इस झांसे में नहीं आए कि विपक्षी सरकारें पिछड़ों के लिए कुछ नहीं कर पाईं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार पिछड़ों के लिए कुछ नहीं कर पाई. हालांकि मोदी ने ही संवैधानिक ढांचे के जरिए पिछड़े वर्ग के लोगों की समस्याओं के लिए ओबीसी आयोग का गठन किया.
दलितों का भरोसा खो चुकी भाजपा अब पिछड़ों का भी भरोसा खो रही है. इस की वजह पिछड़ों की छटपटाहट है कि भाजपा बातों के बताशे तो बहुत फोड़ती है लेकिन पिछड़ों के लिए कुछ ठोस नहीं करती. सवर्णों से ज्यादा पिछड़े वर्ग के नौजवान रोजगार के लिए तरस रहे हैं. पिछड़ा आयोग और आरक्षण झुन झुना साबित हो रहे हैं क्योंकि सरकार के पास देने को नौकरियां ही नहीं हैं और प्राइवेट सैक्टर नोटबंदी व जीएसटी के बाद से तंगी, बदहाली के दौर से गुजर रहा है.
लोकसभा चुनाव में पिछड़े वर्ग ने भाजपा का साथ महाराष्ट्र में भी दिया था, लेकिन विधानसभा ने उस से मुंह फेर लिया. इस से जाहिर है उस का पुरोहितों की इस पार्टी से मोहभंग हो रहा है और इसी का नतीजा है कि अक्तूबर 2018 में देश के 70 फीसदी हिस्से पर राज करने वाली भाजपा नवंबर 2019 में 40 फीसदी हिस्से पर सिमट गई है. दिल्ली और झारखंड में भी पिछड़े भाजपा से यों ही बिदके रहे तो भगवा ग्राफ और भी गिरेगा.
महाराष्ट्र में पिछड़ों की कोई 356 जातियां हैं जिन में से 15 फीसदी को ही आरक्षण का लाभ मिल रहा है. वोटों के लिहाज से देखें तो इस राज्य में 40 फीसदी पिछड़े वोट हैं जो विधानसभा चुनाव में बड़ी तादाद में एनसीपी और शिवसेना के साथ आए. राजनीति से हट कर देखें तो यह सवर्ण और पंडों की पार्टी भाजपा से विद्रोह ही नजर आता है. महाराष्ट्र में भाजपा ने कभी ब्राह्मण प्रमोद महाजन को खूब भुनाया था. फिर उसे लगा कि पिछड़ों के बगैर काम नहीं चलना, तो वह इस वर्ग के गोपीनाथ मुंडे को आगे ले आई. इस चुनाव में पंकजा मुंडे की हार में देवेंद्र फडणवीस का रोल देखा जा रहा है, तो बात कतई हैरत की नहीं.
भाजपा ने सत्ता के लिए पिछड़ों का खूब इस्तेमाल किया और फिर उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका. कल्याण सिंह और उमा भारती इस की जीतीजागती मिसाल हैं. यही अब मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह जैसों के साथ हो रहा है.
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद यादव सत्ता की छत पर अपनीअपनी जाति के वोटों के दम पर पहुंचे थे, लेकिन भाजपा ने दूसरी पिछड़ी जातियों का हाथ थाम कर इन कद्दावर नेताओं का जो हाल किया वह किसी से छिपा नहीं है. हरियाणा में जाटों ने भाजपा का भरोसा नहीं किया तो महाराष्ट्र से मराठा समुदाय जो उस पर शिवाजी के वक्त से ही भरोसा नहीं करता.
एक दिलचस्प समीकरण महाराष्ट्र में यह भी देखने में आया कि दलित और मुसलिम समुदाय वापस कांग्रेस की तरफ लौट रहा है यानी राजनीति अपने परंपरागत ढर्रे पर आ रही है जिस में भाजपा के खाते में सवर्ण और संपन्न पिछड़े ही बच रहे हैं.
शरद पवार ने सामाजिक वजहों के चलते उद्धव ठाकरे का साथ ज्यादा दिया लगता है और इस बाबत सोनिया गांधी को मनाने में भी वे कामयाब रहे हैं जिन का मकसद भी भाजपा को कमजोर करना है.
महाराष्ट्र से एक नई शुरुआत तो हुई है कि विपरीत विचारधारा वाले दल साथ आएं, यह बात स्वागतयोग्य होनी चाहिए. महा विकास अघाड़ी कितना चलेगा, यह बात कतई महत्त्वपूर्ण नहीं है. महत्त्वपूर्ण यह है कि महाराष्ट्र में धर्म और जाति की राजनीति की नई परिभाषा गढ़ी जा रही है. बात सिर्फ विकास की हो रही है जो इस अघाड़ी की मजबूरी भी हो जाएगा.
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