
यूनिक समय, नई दिल्ली। आज देशभर में मुस्लिम समुदाय बड़े हर्षोल्लास के साथ ईद-उल-अजहा यानी बकरीद का पर्व मना रहा है। इस्लामी कैलेंडर के 12वें महीने ज़ुलहिज्जा की 10वीं तारीख को यह पर्व मनाया जाता है। इसे ‘Festival of Sacrifice’ यानी ‘त्याग का पर्व’ भी कहा जाता है। बकरीद को ईद-उल-जुहा, ईद-उल-अजहा और ईद-उल-बकरा जैसे नामों से भी जाना जाता है।
इस खास मौके पर मुस्लिम समाज के लोग सुबह जल्दी उठकर नहाते हैं, नए कपड़े पहनते हैं और मस्जिदों या ईदगाह में विशेष नमाज अदा करते हैं। नमाज के बाद ‘कुर्बानी’ की रस्म अदा की जाती है, जो इस पर्व की सबसे महत्वपूर्ण परंपरा है।
इस पर्व की जड़ें इस्लाम धर्म के पैगंबर हज़रत इब्राहीम की उस ऐतिहासिक घटना से जुड़ी हैं, जब उन्होंने अल्लाह की आज्ञा पर अपने पुत्र हज़रत इस्माईल की कुर्बानी देने का संकल्प लिया था। अल्लाह उनकी नीयत से खुश हुए और उनके बेटे की जगह एक जानवर भेज दिया। तभी से इस दिन जानवर की कुर्बानी देने की परंपरा शुरू हुई।
इस्लाम में कुर्बानी का मकसद यह संदेश देना है कि इंसान को अल्लाह की राह में हर तरह की कुर्बानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए। कुर्बानी के लिए सिर्फ सेहतमंद जानवरों का चयन किया जाता है। बीमार या अपंग जानवर की कुर्बानी इस्लामी नियमों के अनुसार मान्य नहीं होती।
कुर्बानी के मांस को तीन हिस्सों में बांटा जाता है – पहला हिस्सा गरीबों के लिए, दूसरा रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए, और तीसरा हिस्सा अपने परिवार के लिए रखा जाता है। कुर्बानी के लिए उपयोग किए गए पैसे भी केवल हलाल तरीके से कमाए गए होने चाहिए।
बकरीद केवल धार्मिक रस्मों का त्योहार नहीं है, यह मेलजोल, भाईचारे और दान-पुण्य का भी प्रतीक है। इस दिन लोग एक-दूसरे को ‘ईद मुबारक’ कहते हैं, मिठाइयां और तोहफे बांटते हैं तथा जरूरतमंदों को दान देते हैं।
जहां सऊदी अरब में बकरीद एक दिन पहले मनाई जाती है, वहीं भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और मलेशिया जैसे देशों में यह पर्व आमतौर पर अगले दिन मनाया जाता है।
बकरीद का यह पर्व सभी को एकजुट होकर प्रेम, सेवा और समर्पण की भावना के साथ जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
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