नई दिल्ली। आगामी लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं. अगर इस साल भी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली NDA ने साल 2014 की तरह ही प्रदर्शन किया तो यह न सिर्फ कांग्रेस के भविष्य को संकट में डाल देगा, बल्कि इससे नेहरू-गांधी परिवार के अस्तित्व पर भी प्रश्न-चिह्न लग जाएगा।
नेहरू-गांधी परिवार का कोई भी सदस्य असफल नहीं रहा है. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी का निधन उनके प्रधानमंत्री रहते हुई थी, जबकि राजीव गांधी श्रीपेरम्बुदुर में एक आत्मघाती हमले का शिकार हुए थे. सोनिया गांधी ने साल 2004 और साल 2009 में कांग्रेस को लगातार जीत दिलाई. वहीं संजय गांधी का युवावस्था में ही देहांत हो गया।
अब बारी राहुल और प्रियंका गांधी की है कि वे खुद को साबित करें. प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में पैर जमाने के लिए कुछ छोटे दलों को शामिल करने का प्रयास कर रही हैं, जो हताशा के संकेत दे रहे हैं. अगर कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनाव में 100 से अधिक सीटें जीतती है तो इससे पार्टी को न केवल ऑक्सीजन मिलेगा, बल्कि यह सरकार बनाने की परवाह किए बिना उसे एक और जीवन देगा.
इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस के लिए गठबंधन का मुद्दा मुश्किल प्रस्ताव था. यह हैरान करने वाला है कि कांग्रेस दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ सीट बंटवारे का फॉर्मूला तय करने में नाकाम क्यों रही और उत्तर प्रदेश में महागठबंधन में शामिल होने के लिए उसने तेजी से काम क्यों नहीं किया? जाहिर है, दो या तीन संसदीय सीटों की खातिर राष्ट्रीय राजधानी में अपनी पहचान खोने के डर के चलते कांग्रेस सभी से एक स्पष्ट दूरी पर रही.
पार्टी के प्रबंधक हरियाणा और पंजाब में बाद के राज्य विधानसभा चुनावों और AAP की उम्मीदों के प्रति सचेत रहे. ऐसा ही हाल उत्तर प्रदेश का भी था. राज्य के पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों में पार्टी को पुनर्जीवित करने की जिम्मेदारी प्रियंका गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया को दी गई.
ऐतिहासिक रूप से देश की सबसे पुरानी पार्टी ने राष्ट्र का नेतृत्व करना खुद का कर्तव्य मान लिया है. डॉ. पट्टाभि सीतारमैय्या, यूएन ढेबर से लेकर पीवी नरसिम्हा राव, प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह और विट्ठल गाडगिल ने देश की आजादी में कांग्रेस की भूमिका पर जोर दिया है.
लेकिन कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि पार्टी के नेता अब भी अतीत से चिपके हुए हैं. 1995 में अवादी में हुए एआईसीसी के सेशन के बाद से पार्टी नेताओं की दुनिया को देखने की दृष्टि नहीं बदली है. उस समय तत्कालीन एआईसीसी प्रमुख यूएन ढेबर ने एक कविता पढ़कर बताया था कि कांग्रेस पार्टी क्या है. इस कविता में देश के दुख-दर्द को प्रकट किया गया था.
1998 में कांग्रेस के रुख में उस वक्त थोड़ा बदलाव आया जब सोनिया गांधी के नेतृत्व में पार्टी ने आधिकारिक तौर पर गठबंधन के लिए दरवाजे खोल दिए.
हालांकि, इसके सक्सेसिव इस दावे का खंडन करते रहे हैं कि किसी एक पार्टी के शासन के दिन खत्म हो गए और केंद्र में क्षेत्रीय दलों का एक समूह प्रतिनिधित्व कर रहा है. पंचमढ़ी कॉन्क्लेव में कांग्रेस ने जोर देकर कहा था कि विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों की स्थिरता में वह क्षेत्रीय दलों से बेहतर है.
सितंबर 1998 में कांग्रेस ने यह मान लिया कि लंबे वक्त में पार्टी खुद शासन चलाने लायक हो जाएगी. 2004 के लोकसभा चुनाव सोनिया गांधी पार्टी लाइन से अलग गई और आरजेडी एवं कुछ अन्य लोगों के साथ सीटों का बंटवारा कर लिया. हालांकि पार्टी थिंक टिंक ने जोर देकर कहा कि पार्टी के केंद्र में गठबंधन सरकार का नेतृत्व करना होगा.
अब बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस पार्टी किसी बाहरी व्यक्ति को लाने के लिए तैयार है? कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा पूरी तरह इसके पक्ष में है. इसकी दो वजह हैं. पहला- बदलती राजनीति के इस दौर में राहुल गांधी को सीखने का वक्त मिलेगा. दूसरा-कांग्रेस के विपरीत कोई भी तीसरा मोर्चा बीजेडी, वाईएसआर कांग्रेस या तेलंगाना राष्ट्रीय समिति जैसे गैर-एनडीए दलों को साथ लाने के लिए बेहतर होगा.
हालांकि इसका दूसरा पक्ष यह है कि अगर राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन सरकार बनती है तो कांग्रेस हाशिए पर जा सकती है और उसका अल्पसंख्यक, दलित और अनुसूचित जातियों वाला आधार खिसक सकता है. कांग्रेस के अंदर यह दुविधा बिना कारण नहीं है. सीतारमैय्या ने सात दशक पहले लिखा था, “कांग्रेस पार्टी देश को जीवन देने वाली विचारधारा का सर्विस स्टेशन है.” पार्टी आज भी इसी पर विश्वास करती है.
इन तमाम सवालों के लिहाज़ से देखें तो कांग्रेस के लिए 2019 के नतीजों का महत्व बहुत ज्यादा है.
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