महाराष्ट्र में अन्ततः उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ही ली। प्रधानमंत्री की लाख कोशिशों के बाद भी देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री नहीं रह पाए।
महाराष्ट्र का यह पूरा घटनाक्रम बीजेपी के लिए महज किसी ऐसे जख्म की तरह नहीं है, जिसकी टीस से कभी-कभी आदमी का पूरा शरीर हिल जाया करता है। वास्तव में यह उसके लिए आदमी की कल्पना में जीवन की सजी हुई पूरी बगिया के उजड़ जाने की तरह का एक भावनात्मक विषय है। चुनाव परिणाम आने के साथ ही बीजेपी ने शिव सेना को अपने पैरों तले दबा कर रखने की अजीब सी पैंतरेबाजी शुरू कर दी थी।
जब यह साफ हो चुका था कि बीजेपी अकेले बहुमत के आंकड़े से काफी दूर है और चुनाव में विपक्ष के दलों को उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली है, अर्थात जनता के रुख में पहले की सरकार के प्रति समर्थन कम हो रहा है, तब भी खुद नरेंद्र मोदी ने अपने इस महत्वपूर्ण सहयोगी दल से बिना कोई बात किए एकतरफा घोषणा कर दी कि देवेंद्र फडणवीस ही महाराष्ट्र के अगले मुख्यमंत्री होंगे। यह तब किया गया जब मोदी-शाह और सारी दुनिया को यह पता था कि शिव सेना के साथ भाजपा के रिश्ते में चुनाव के पहले से ही भारी तनाव चल रहा है।
मोदी-शाह महाराष्ट्र के जरिये दुनिया को यही संदेश देना चाहते थे कि उनके मतों में कमी और विपक्ष की अप्रत्याशित सफलता के बावजूद राजनीति में उनकी धमक और पकड़ जरा भी कम नहीं हुई है। सीबीआई-ईडी-आईटी की उनकी डंडे की ताकत का कोई मुकाबला नहीं है। वे यहां से अपनी छाती को और भी चौड़ा करके सभी संवैधानिक संस्थाओं, बल्कि अदालतों तक भी अपने पूर्ण वर्चस्व को स्थापित करने के अभियान को और तेज करना चाहते थे, लेकिन इसके विपरीत भारत के संघीय ढांचे के राजनीतिक सत्य के सामने आने की संभावनाएं भी हम देख पा रहे थे।
जब शिव सेना ने शुरू से ही मोदी की इस एकतरफा घोषणा का विरोध करते हुए सत्ता में आधी-आधी भागीदारी की मांग पूरी ताकत से उठानी शुरू कर दी। मोदी-शाह ने शिव सेना के तेवर और उसकी मराठावाद की राजनीतिक पृष्ठभूमि को पढ़ने में भारी चूक की। शिव सेना ने मोदी-शाह को खुली चुनौती दी और कहना न होगा, अंत में, शिव सेना ने सचमुच हवा से फुला कर रखे गए मोदी-शाह के बबुए में सूई चुभाने का काम कर दिया।
सीबीआई, ईडी, आईटी और अदालत तक को प्रभावित कर लेने की मांसपेशी की ताकत से इतराये हुए मोदी-शाह अहंकार में यह भूल गए थे कि विचार से कहीं ज्यादा शारीरिक बल और अंतहीन वासनाएं ही आदमी के मतिभ्रम का प्रमुख कारण हुआ करती हैं।
राज्यपालों के जरिए धोखे से अपनी सरकार बनवाने की उनकी पैंतरेबाजी के अतीत के अनुभव महाराष्ट्र में उनके लिए मददगार साबित नहीं हुए। तड़के सुबह चोरी-छिपे फडणवीस को मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण कुल मिला कर राजनीतिक कदाचार और बेईमानी की एक और नजीर ही बना रह गया। उल्टे, देवेंद्र फडणवीस और एनसीपी के अजित पवार के पूरे नाटक ने उद्धव ठाकरे की ताजपोशी एक नया राजनीतिक औचित्य प्रदान किया और महाराष्ट्र में शिव सेना के नेतृत्व में तीन दलों के गठजोड़ की सरकार का बनना खुद में एक राजनीतिक संघर्ष का रूप ले लिया।
इस गठजोड़ की सरकार के गठन के प्रति वहां की जनता में अन्यथा जो उदासीनता देखने को मिलती, उसे राज भवन की साजिश की कहानी ने एक तीव्र उत्साह में बदल दिया। शिव सेना, एनसीपी, कांग्रेस और वाम के बीच की एकता जैसी एक लड़ाई की आग में तप कर फ़ौलादी होती चली गई।
फडणवीश को शपथ दिलाने के बारे में राज्यपाल के स्वेच्छाचार को जब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तब दो दिनों की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट का वह एक साधारण और अपेक्षित फैसला ही मोदी-शाह की पूरी भाजपा को अब जैसे पंगू बना देने का सबब बन चुका है। जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, उनके लिए यह कोई मामूली जख्म नहीं है। अपने पतन के दौर में प्रवेश कर चुकी भाजपा की राजनीति सांप्रदायिक विभाजन के अलावा चुनाव में हार कर भी अपनी सरकार बना लेने की तिकड़म में सिमटती जा रही है। आगे इस प्रकार की तिकड़म की संभावनाओं के अंत की कल्पना ही उसके लिए जानलेवा अवसाद का कारण बन सकती है।
सुप्रीम कोर्ट का यह अंतरिम निर्णय कानून की अपनी कायिक और आत्मिक, दोनों जरूरतों से संगतिपूर्ण है। अदालत की अपनी मर्यादा और लोकतंत्र के प्रति उसका दायित्व, दोनों का निर्वाह इसी प्रकार संभव था।
एक दिन बाद ही विधानसभा में किसके साथ कितने विधायक हैं का परीक्षण कराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद शुरू हुए तीव्र राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए फडणवीस के लिए इस्तीफा देने के अलावा और कोई चारा नहीं रह गया था। भाजपा घोड़ों की खरीद-बिक्री के कुछ और नए किस्सों से अपने को और भी कलंकित करती उसके पहले ही फडणवीस का इस्तीफा ही बुद्धिमत्ता थी और भाजपा ने कम से कम उस बुद्धमत्ता का परिचय दिया।
महाराष्ट्र में विपरीत विचारों के दलों के बीच मोदी-शाह विरोधी यह एकता भारत की भावी राजनीति का एक बड़ा संकेत है। इस सरकार ने अपना एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करके जन-कल्याण की दिशा में काम करने का निर्णय लिया है। इसके साथ ही हमें यह भी उम्मीद है कि यह सरकार भीमाकोरेगांव के दलित आंदोलन में झूठे मामले बना कर फंसाये गए भारत के कुछ श्रेष्ठ सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को न्याय दिलाने और उस मामले के असली अपराधियों को दंडित करने में भी अपनी मूलभूत जनतांत्रिक निष्ठाओं का परिचय देगी।
Leave a Reply